डॉ.अम्बेडकर की जन्मजयंती पर सामाजिक समता के शिल्पकार थेबाबा साहेब डॉ.भीमराव अम्बेडकर।






























भारतीय संविधान के निर्माता भारतरत्न बाबा साहेब डॉ.भीमराव अम्बेडकर भारत में एक ऐसे वर्ग विहीन समाज की संरचना चाहते थे जिसमें जातिवाद, वर्गवाद, सम्प्रदायवाद तथा ऊँच-नीच का भेद नहीं हो और प्रत्येक मनुष्य अपनी अपनी योग्यता के अनुसार सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए स्वाभिमान और सम्मानपूर्ण जीवन जी सके। दलितों को स्वावलम्बी बनाने के लिए अम्बेडकर ने दलित समाज को त्रिसूत्री आचार संहिता प्रदान की जिसके तीन सूत्र हैं - शिक्षित बनो, संगठित होओ तथा संघर्ष करो। बाबा साहेब ने इस त्रिसूत्री आन्दोलन के माध्यम से समाज के उपेक्षित,कमजोर तथा सदियों से सामाजिक शोषण से संत्रस्त दलित वर्ग को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य ही नहीं किया बल्कि एक समाज सुधारक विधिवेत्ता की हैसियत से भी उन्होंने दलित वर्ग को भारतीय संविधान में समानता के कानूनी अधिकार प्रदान किए।














भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास की दृष्टि से महात्मा गांधी ने सत्याग्रह से अनुप्रेरित अपने अहिंसक जन-आन्दोलन के द्वारा जहां एक ओर देश को ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दासता से मुक्त कराया तो वहां दूसरी ओर बाबा साहेब अम्बेडकर ने सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन से हजारों वर्षों से उत्पीडित दलित वर्ग को स्वाधीनता एवं स्वाभिमान से जोड़ने का महान् कार्य किया।














एक सामाजिक और राजनैतिक विचारक के रूप में डॉ.अम्बेडकर ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के तीस साल पहले से ही भारतीय जाति प्रथा की भयंकर विभीषिका को उजागर करना प्रारम्भ कर दिया था। उनका सबसे पहला शोध लेख सन् 1917 में ‘इन्डियन एंटीक्वैरी’ नामक शोधपत्रिका में प्रकाशित हुआ जिसके फलस्वरूप डॉ.अम्बेडकर एक प्रख्यात समाजशास्त्री तथा मानवशास्त्री के रूप में प्रसिद्ध हो गए। ‘कास्ट इन इन्डिया-देयर मैकेनिज्म जैनेसिस एण्ड डेवलैपमेंट’ अर्थात् ‘भारत में जाति-उनकी प्रणाली उत्पत्ति और विकास’ शीर्षक से प्रकाशित यह लेख 9 मई 1916 को डॉ.ए.ए. गोल्डवाइजर की अध्यक्षता में कोलम्बिया युनिवर्सिटी‚ न्यूयार्क‚ अमेरिका की एक संगोष्ठी में पढ़ा गया। ‘इन्डियन एंटीक्वैरी’ के जिस अंक में डॉ.अम्बेडकर का यह लेख प्रकाशित हुआ। उसी अंक में भारत में जाने माने प्राच्यविद्या मनीषी एल.डी.बरनैट के.पी.जायसवाल, आर.सी.मजूमदार, पी.वी. काणेवी.एस.सुकथन्कर आदि के लेख भी प्रकाशित हुए थे।
अम्बेडकर वर्णव्यवस्था पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के घोर विरोधी थे। उनकी मान्यता है सम्पूर्ण समाज को चार वर्गों में विभाजित करना श्रम-विभाजन की वैज्ञानिक योजना नहीं है। प्रारम्भ में हिन्दू समाज के केवल तीन वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य ही अस्तित्व में थे। शूद्र कोई पृथक वर्ण न होकर क्षत्रिय वर्ण का ही एक भाग था। अम्बेडकर ने अपने इस मत के पक्ष में दो तर्क दिए। पहला यह कि ऋग्वेद के प्रक्षिप्त माने जाने वाले दसवें मण्डल के ‘पुरुषसूक्त’ को छोड़कर ऋग्वेद के सभी स्थलों में ब्राह्मण‚ क्षत्रिय और वैश्य तीन वर्णों का ही उल्लेख मिलता है और कहीं भी शूद्र वर्ण का पृथक उल्लेख नहीं मिलता। दूसरा तर्क यह है कि शतपथ और तैत्तिरीय ब्राह्मणों में केवल तीन वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख है और चौथे वर्ण की उत्पत्ति के विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता। अम्बेडकर ने अनेक विद्वानों का मत देते हुए चार वर्णों की उत्पत्ति को वैदिक आधार देने वाले ‘पुरुषसूक्त’ को प्रक्षिप्त स्वीकार किया है। गौतमबुद्ध के सिद्धान्तों और उपदेशों का अम्बेडकर के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा। डॉ. अम्बेडकर ने गौतमबुद्ध के विवेकवाद से प्रभावित होकर इस सत्य को आत्मसात कर लिया कि वैचारिक शुद्धि के लिए मस्तिष्क की शुद्धि अनिवार्य है तथा यही मस्तिष्क का शुद्धीकरण ही धर्म का सार है।
डॉ. अम्बेडकर गौतम बुद्ध के बाद अपना दूसरा गुरु सन्त कबीर को मानते थे। कबीर के विचारों से अम्बेडकर ने यह सन्देश ग्रहण किया कि सन्त और महात्मा बनना तो बहुत दूर की बात है किसी व्यक्ति के लिए पूर्ण अर्थों में मनुष्य बन जाना ही बहुत कठिन है। उन्होंने समाज सुधारकों में ज्योतिबा फूले के व्यक्तित्व एवं कार्यों से विशेष प्रेरणा ली है। फूले मानते थे कि कोई व्यक्ति जन्म से छोटा या बड़ा नहीं होता फूले स्त्रियों और शूद्रों को अनिवार्य शिक्षा देने के पक्षधर थे। डॉ.अम्बेडकर ने ज्योतिबा फूले के प्रति विशेष आस्थाभाव प्रकट करते हुए उन्हें अपनी पुस्तक 'हू आर द शूद्राज’ को समर्पित की। उन्हीं से प्रेरित होकर अम्बेडकर ने ‘हिन्दू कोड बिल’ के माध्यम से महिलाओं को उत्तराधिकार‚विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता दिए जाने का प्रावधान किया था।
हिन्दू धर्म में समता भाव का प्रभावी तरीके से समर्थन और इसे व्यावहारिक धरातल पर चरितार्थ करने का जो कार्य विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक आचार्य रामानुजाचार्य ने किया डॉ.अम्बेडकर ने उसकी विशेष सराहना की है। वे कहते हैं कि रामानुजाचार्य ने ‘कांचीपूर्ण’ नामक अब्राह्मण व्यक्ति को अपना गुरु बनाकर दार्शनिक क्षेत्र में समतावाद का उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने तिरुवल्ली में एक चाण्डाल औरत को दीक्षा प्रदान की और उसकी मूर्ति बनाकर उसे मन्दिर में स्थापित किया। ‘धनुर्दास’ नामक अस्पृश्य को रामानुजाचार्य ने अपना शिष्य बनाया। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में उनके शिक्षक रहे जान डिवे से प्रेरणा लेकर अम्बेडकर यह जान पाए कि शिक्षा केवल संसार को जानने का माध्यम ही नहीं होती बल्कि सामाजिक परिवर्तन की तकनीक भी शिक्षा ही सिखाती है।
डॉ.अम्बेडकर के मन में एक अखण्ड हिन्दुत्व की अवधारणा विद्यमान थी। यद्यपि अम्बेडकर बौद्ध धर्म की तत्त्वमीमांसा से प्रभावित होकर बौद्धानुयायी बन गए थे किन्तु जहां तक भारतीय संविधान में हिन्दुत्व की परिभाषा है‚ उसके अन्तर्गत जैन‚ बौद्ध तथा सिख हिन्दुओं के रूप में ही पारिभाषित किए गए हैं। डॉ.श्रीकृष्ण सेमवाल ने ‘भीमशतकम’ नामक काव्य में लिखा है -
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“हिन्दुवर्गसमाख्यानं विधाने यत्र दृश्यते।
जैनाः बौद्धाश्च सिख्खाश्च सर्वे तत्र सुयोजिताः।।”
-भीमशतक‚83
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“हिन्दुवर्गसमाख्यानं विधाने यत्र दृश्यते।
जैनाः बौद्धाश्च सिख्खाश्च सर्वे तत्र सुयोजिताः।।”
-भीमशतक‚83














डॉ.भीमराव अम्बेडकर के जीवनी लेखक सी.बी. खैरमोडे ने डॉ.अम्बेडकर के शब्दों को उदधृत करते हुए कहा है– ‘मुझ में और सावरकर में इस प्रश्न पर न केवल सहमति है बल्कि सहयोग भी है कि हिन्दू समाज को एकजुट और संगठित किया जाए और हिन्दुओं को अन्य मजहबों के आक्रमणों से आत्मरक्षा के लिए तैयार किया जाए।’ (ब्लिट्ज 15 मई‚ 1993)
डॉ. श्रीकृष्ण सेमवाल ने ‘भीमशतकम’ नामक काव्य के माध्यम से डॉ.अम्बेडकर के राष्ट्रवादी चरित्र को विशेष रूप से रेखांकित करते हुए अपनी विनम्र श्रद्धांजलि दी है -
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“राष्ट्रवादी महानेष भारतीयो गुणोत्तमः।
पवित्रः शुद्धिचित्तश्च भीमरावो विलोक्यते।।”
-भीमशतक‚ 80
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बाबा साहेब की जन्मजयंती के अवसर पर डॉ.भीमराव अम्बेडकर को शत शत नमन !!














“राष्ट्रवादी महानेष भारतीयो गुणोत्तमः।
पवित्रः शुद्धिचित्तश्च भीमरावो विलोक्यते।।”
-भीमशतक‚ 80














बाबा साहेब की जन्मजयंती के अवसर पर डॉ.भीमराव अम्बेडकर को शत शत नमन !!
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भीमशतक पुस्तक उपलब्ध हो सकती है क्या ?
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