Monday, April 10, 2017

लोकमान्य तिलक का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 'पंजाब केशरी' लाला लाजपत राय,बिपिन चंद्र पाल , महर्षि अरविंद, कांग्रेस के दो दल नरम और गरम दल

राष्ट्रीय कांग्रेस का क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद-4💐॥ तिलक : ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के पुरोधा ॥

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1857 की क्रांति के विफल हो जाने के बाद राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में ‘लाल-बाल-पाल’ की तिकड़ी के नाम से प्रसिद्ध लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक और बिपिन चन्द्र पाल ने स्वराज आन्दोलन की जो क्रान्तिकारी लहर देशभर में पैदा की उसी से प्रेरित रहा भारत की आजादी की लड़ाई का संपूर्ण इतिहास।
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बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में कांग्रेस के दो धड़ों के मध्य राष्ट्रवाद को लेकर गंभीर मंथन चल रहा था। एक ओर सत्ता के साथ समझौता करके राजनीति करने वाले नरम दल के नेताओं का राष्ट्रवाद था जो ब्रिटिश हुकुमत की उदारता व न्यायप्रियता का गुणगान करके स्वराज प्राप्ति के सपने देख रहा था तो दूसरी ओर गरम दल के नेता स्वराज को अंग्रेजों की अनुकंपा से प्राप्त भिक्षा के रूप में नहीं‚ बल्कि जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में आत्मबलिदान की भावना से लड़कर और संघर्ष द्वारा प्राप्त करना चाहते थे।
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भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उद्भव तथा विकास में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। नरम और गरम‚ उदार और उग्र‚ पाश्चात्य और भारतीय, क्रान्तिकारी और व्यवस्थावादी सभी प्रकार की विचारधाराओं को समाहित करके भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने आजादी की चाह रखने वाले देशभक्तों और राष्ट्रवादियों को राष्ट्रीय स्तर पर स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए संगठित किया और अनेक प्रकार की बाधाओं तथा चुनौतियों का सामना करते हुए भारत को आजादी दिलाने में सफलता भी पाई।
भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना 28 दिसम्बर 1885 को मुंबई के ‘गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय’ में कलकत्ते के व्योमेश चन्द्र बनर्जी की अध्यक्षता में हुई थी। इसके संस्थापक जनरल सेक्रेटरी ए ओ ह्यूम थे । अपने शुरुआती दौर में काँग्रेस का दृष्टिकोण एक कुलीन वर्ग की संस्था के रूप में था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में पूर्णरूप से उदारवादी नेताओं के प्रभाव में थी, जिनका अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा वैधानिक आन्दोलन में दृढ़ विश्वास था। उदारवादियों का मुख्य उद्देश्य भारतीय प्रशासन में क्रमिक सुधारों के लिए सरकार के समक्ष मांगें प्रस्तुत करना और संवैधानिक साधनों से उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्न करना होता था। 1895 ई. में गोपालकृष्ण गोखले को कांग्रेस का मन्त्री बनाया गया। गोखले एक महान उदारवादी नेता थे। वे संवैधानिक ढंग से सुधारों के पक्ष में थे। उनका मानना था कि स्वशासन धीरे-धीरे आएगा। उसे एकदम नहीं माँगा जा सकता। वे अंग्रेजों को उदार एवं न्यायप्रिय जाति मानते थे। उनका मानना था कि जिस दिन अंग्रेजों को यह विश्वास हो जाएगा कि भारतीय लोग स्वशासन के योग्य हो गए हैं, तो वे स्वयं ही भारतीयों को स्व-शासन दे देंगे।
लेकिन 1885 ई. से 1905 ई. के बीच के काल में विश्व पटल पर कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुई, जिनसे कांग्रेस की युवा पीढ़ी में एक ऐसा वर्ग प्रभाव शाली बनकर उभर आया जो अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास नहीं रखता था और उदारवादी कांग्रेसी नेताओं का कटु आलोचक बन गया था। वह वर्ग यह महसूस करने लगा था कि स्वराज माँगने से नहीं, बल्कि संघर्ष करने से ही प्राप्त होगा। काँग्रेस में स्वराज की मुहिम सबसे पहले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने चलाई थी।
💐 कांग्रेस के दो दल नरम और गरम दल💐
1907 में कांग्रेस में साफ तौर से दो दल अस्तित्व में आ चुके थे - गरम दल एवं नरम दल। गरम दल का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं बिपिन चंद्र पाल कर रहे थे तो नरम दल का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता एवं दादा भाई नौरोजी के हाथ में था । गरम दल पूर्ण स्वराज की मांग कर रहा था परन्तु नरम दल ब्रिटिश राज के दायरे में ही स्वशासन चाहता था। संघर्ष द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त करने के मार्ग को अपनाने वाली क्रान्तिकारी नव कांग्रेसी विचारधारा को गरमदल के नाम से जाना जाने लगा। गरमदल के इन संघर्षवादी नेताओं ने 1905 से लेकर 1919 तक क्रान्तिकारी विचारों से ओतप्रोत हो कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आन्दोलन का नेतृत्व किया था जिसे आम जनता का भी भरपूर समर्थन मिला।
वास्तविकता यह थी कि गरमदल के क्रान्तिकारी विचारों से भारतीय जनता के हृदयों में आजादी प्राप्त करने की ललक जाग उठी थी तथा राष्ट्रीय आन्दोलन एक वास्तविक जन-आन्दोलन का स्वरूप धारण कर रहा था। भारत में इस क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद को जन आन्दोलन बनाने में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय एवं विपिनचन्द्र पाल आदि के योग्य नेतृत्व की मुख्यता से भागीदारी रही थी तथा महर्षि अरविन्द घोष का भी इन्हें वैचारिक समर्थन मिला था।
दरअसल‚ बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में कांग्रेस के दो धड़ों के मध्य राष्ट्रवाद को लेकर गंभीर मंथन चल रहा था। एक ओर सत्ता के साथ समझौता करके राजनीति करने वाले नेताओं का राष्ट्रवाद था जो ब्रिटिश हुकुमत की उदारता एवं न्यायप्रियता का गुणगान करके स्वराज प्राप्ति के सपने देख रहा था तो दूसरी ओर गरम दल के नेता स्वराज को अंग्रेजों की अनुकंपा से प्राप्त भिक्षा के रूप में नहीं बल्कि अपने जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में आत्मबलिदान की भावना से लड़कर और संघर्ष द्वारा प्राप्त करना चाहते थे।
महर्षि अरविंद
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महर्षि अरविन्द तत्कालीन उदारवादी कांग्रेसी नेताओं के घोर विरोधी थे। उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि कांग्रेस ने स्वराज प्राप्ति के लिए जिन तरीकों को चुना है, वे सही तरीके नहीं हैं और जिन नेताओं में वह विश्वास करती है, वे नेता बनने के योग्य नहीं हैं।अरविन्द घोष के राष्ट्रवादी विचारों के अनुसार “हमारा वास्तविक शत्रु कोई बाहरी नहीं, अपितु हमारी अपनी शिथिलता और कायरता है। एक पराधीन राष्ट्र में स्वन्त्रता के लिए बलिदान की आवश्यकता होती है। राजनीति में आराम से कुर्सी पर बैठकर विदेशी सत्ता नहीं हिलाई जा सकती।” अरविन्द घोष ने कांग्रेस की पुरानी भिक्षावृत्ति की नीति का विरोध किया और भारतीयों को इसके स्थान पर आत्म-निर्भरता तथा संघर्ष का मार्ग अपनाने की नीति का उपदेश दिया, ताकि वे दृढता से स्वन्त्रता प्राप्ति के लिए अंग्रेज सरकार का विरोध कर सकें।
लोकमान्य तिलक का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
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मातृभूमि के अनन्य भक्त लोकमान्य बालगंगाधर तिलक इस संघर्षवादी राष्ट्रवाद के मुख्य पुरोधा थे। वे विदेशी शासन को भारत की समस्त कठिनाइयों का मूल कारण मानते थे और स्वदेशी राज्य को उसकी अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ मानते थे। उनका लोकप्रिय नारा था “स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा।” तिलक का मानना था कि राजनीतिक भिक्षावृति से स्वाधीनता का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता। अतः हमें इसके स्थान पर जन जागृति‚ जन आन्दोलन तथा जन संघर्ष के मार्ग को अपनाना चाहिए। उनका यह दृढ विश्वास था कि भारतीयों को सरकार के अत्याचारों का सामना देशभक्ति की भावना से निडरता पूर्वक करना चाहिए और मातृभूमि के लिए बलिदान होने में भी गौरव का अनुभव करना चाहिए। इस प्रकार तिलक ने अपने देशभक्ति पूर्ण जोशीले भाषणों एवं राष्ट्रभक्ति के नारों से भारतीयों में निडरता, वीरता, देशभक्ति तथा आत्म-त्याग की भावनाओं को जागृत किया और देशवासियों को अपने स्वराज्य प्राप्ति के लिए सरकार से संघर्ष करना और लड़ना भी सिखाया। स्वराज्य प्राप्ति उनका मूल लक्ष्य था।
तिलक ने भारतीय राष्ट्रवाद को उत्प्रेरित करने के लिए हिन्दू धर्म पर आधारित गणेशोत्सव और शिवाजी उत्सव के माध्यम से भी देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया जिसे हम ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की पहली शुरुआत कह सकते हैं। बाल गंगाधर तिलक संस्कृत तथा ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। वे एक राजनैतिक विचारक के रूप में भी हिन्दू धर्म और चिन्तन को एक प्रचण्ड ज्ञानधारा के रूप में विश्वव्यापी बनाना चाहते थे तथा पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान के धरातल पर भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों के ज्ञान-विज्ञान को उत्कृष्ट सिद्ध करना चाहते थे। ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहासकार जिस तरह से वेदों की ऐतिहासिकता का अवमूल्यन कर रहे थे और भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को नीचा दिखाने का प्रयास कर रहे थे उसी की प्रतिक्रिया स्वरूप लोकमाऩ्य तिलक ने ‘ओरियन : स्टडीज इन एन्टीक्वीटीज ऑफ द वेद’ तथा ‘आरकेटिक होम ऑफ द वेदाज़’ नामक दो वैदिक ग्रन्थों की रचना द्वारा वैदिक कालीन इतिहास को नई दिशा प्रदान की तथा ज्योतिषशास्त्र के आधार पर वेदों का रचनाकाल 4500 ई.पू. निर्धारित किया। संक्षेप में लोकमान्य तिलक के राष्ट्रवादी विचारों ने अपनी शिक्षाओं, कार्यविधि तथा प्रचार के द्वारा भारतीय जनता में सरकार के प्रति विरोधी भावना को जागृत किया और उन्हें अपनी मातृभूमि के लिए मर मिटने की प्रेरणा दी।
'पंजाब केशरी' लाला लाजपत राय
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‘पंजाब केसरी’ के रूप में विख्यात लाला लाजपतराय बाल गंगाधर तिलक जी के प्रति अपार श्रद्धा रखते थे I लाला जी अखिल भारतीय कांग्रेस के प्रधान भी चुने गयेI इन्होंने लाहौर हाई कोर्ट में वकालत की और सदा किसानों और जमींदारो के पक्षधर बनकर अंग्रेजों के जुल्मों का प्रतिवाद किया जिससे अंग्रेज इनसे चिढ़ गये और इनको जेल में बंद कर दिया I लाला लाजपतराय में अपने देशभक्ति पूर्ण जोशीले भाषणों द्वारा जनता में अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध आक्रोश जाग्रत करने तथा उनके मस्तिष्क में आन्दोलनकारी उत्तेजना भर देने की अपूर्व क्षमता थी। इसी कारण अंग्रेजो ने लाला जी को देशद्रोही कहकर देश निकाला दे दिया I उसके बाद वे अमेरिका‚ जापान आदि देशों में चले गये और वहां भी भारत की आजादी का प्रचार करने लगे। पहला विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद लाला लाजपतराय स्वदेश लौटे। 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध करने वाले जुलूस का नेतृत्व लाला जी ने ही किया था I अंग्रेज प्रशासन ने आन्दोलनकारियों पर निर्ममता से लाठियां बरसाईं जिसमें लाला जी को बहुत गम्भीर चोटें आई I अंततः गम्भीर घावों की वजह से देश के इस अमर बलिदानी लाला जी का 17 नवम्बर 1928 को स्वर्ग वास हो गया I लाला लाजपत राय भारत के सनातन काल से चले आ रहे देश के राष्ट्रीय मूल्यों के आधार पर राज्य का निर्माण करना चाहते थे। वे मानते थे कि भारत में एक राष्ट्र की अवधारणा प्राचीन काल से ही रही है। उनका राष्ट्रवाद किसी धर्म विशेष अथवा नस्ल विशेष की पश्चिमी राष्ट्रवाद की मानसिकता से ग्रस्त नहीं था बल्कि देश के स्वदेशी‚ शैक्षिक‚ सांस्कृतिक‚आर्थिक और राजनैतिक मूल्यों से अनुप्रेरित था। उन्होंने 1925 में ‘हिन्दू महासभा’ के अध्यक्ष के रूप में भारतीय राष्ट्रीयता को प्रोत्साहित करने के लिए तेरह सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की जिसके माध्यम से हिन्दू युवक और युवतियों को राष्ट्रीय स्तर पर संगठित करने का प्रयास किया गया।
बिपिन चंद्र पाल
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बिपिन चन्द्र पाल क्रान्तिकारी भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास में ‘लाल-बाल-पाल ’ की तिकड़ी के रूप में प्रसिद्ध पाल के नाम से पहचाने जाने वाले क्रान्तिकारी विचारक और स्वतंत्रता आन्दोलन के महान क्रन्तिकारी नेता भी थे। बिपिन चन्द्र पाल भारत में “क्रन्तिकारी विचारों के ‘जनक ”भी माने जाते हैं। बिपिन चन्द्र पाल ने अपने क्रान्तिकारी विचारों से अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था। भारत को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा था। क्रान्तिकारी भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास में लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक और बिपिन चन्द्र पाल को ‘लाल-बाल-पाल’ की तिकड़ी के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। इन तीन नेताओं की युति को यदि राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की त्रिवेणी- गंगा यमुना और सरस्वती कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी। इस भारतीय राष्ट्रवाद की त्रिवेणी ने पुरे देश में स्वतंत्रता आन्दोलन की जो लहर पैदा की थी उसी की बुनियाद पर उत्तरोत्तर काल में आजादी की लड़ाई तेज होती गई। इस तिकड़ी ने कभी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके और निरंतर उनसे सामना करते रहे।. बिपिन चन्द्र पाल ने अपने साथियों के साथ मिलकर ब्रिटिश राज को खत्म करने का बीड़ा उठा लिया था. और अपने जीवन के अंतिम क्षण तक वे अंग्रेजो से लड़ते रहे। 1900 मे बिपिन चंद्र पाल पाश्चात्त्य और भारतीय तत्वज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये इंग्लेंड गये। वहां के भारतीयों के लिये उन्होंने ‘स्वराज्य’ नाम का मासिक पत्र निकाला। 1905 मे इंग्लेंड से कोलकता आने के बाद उन्होंने ‘न्यु इंडिया’ नामक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन किया।1905 मे गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया.तो लोकमान्य तिलक , लाला लाजपत राय के साथ मिलकर बिपिनचंद्र पाल ने इस विभाजन का विरोध किया जिसके परिणाम स्वरूप देश भर में. ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आंदोलन शुरु हो गए। उसी संघर्ष काल में भारतीय राजनीति में ‘लाल -बाल -पाल’ इन त्रिमूर्तियों का उदय हुआ। 1907 के अक्तूबर महीने में अरविंद घोष के खिलाफ जो राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया या उसमें न्यायालय द्वारा बिपिनचंद्र पाल को गवाही देने के लिए बुलाया गया पर उन्होंने स्वाभिमान पूर्वक मना कर दिया। तब न्यायालय की अवमानना करने के आरोप में बिपिनचंद्र पाल को छह महीनों की सजा दी गयी। इसी वर्ष बिपिनचंद्र पाल ने ‘वंदे मातरम्’ पत्रिका के संपादन का कार्य शुरु किया।
इस प्रकार विपिनचन्द्र पाल ने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से बंगाल की जनता में जागृति उत्पन्न करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उन्हें बंगाल में तिलक का सेनापति कहा जाता था। इन क्रान्तिकारी प्रयासों के कारण पंजाब और बंगाल राष्ट्रीय आन्दोलन की इस नई धारा के केन्द्र बन गए तथा अन्य प्रान्तों के नवयुवकों ने इस राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। परिणाम स्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन जन-आन्दोलन में परिवर्तित होता गया। भारतीय राष्ट्रवाद पर चर्चा आगे भी जारी रहेगी।

1 comment:

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