भारतीय राष्ट्रवाद : परिचर्चा- 2
॥भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय के कारण॥
॥आधुनिक भारत में जिस नव राष्ट्रवाद का उदय हुआ
यद्यपि वह स्वरूप से पश्चिमी वेशभूषा से युक्त था परंतु उसकी प्रकृति विशुद्ध भारतीय थी और उसका प्रेरणास्रोत भारत का प्राचीन वैदिक साहित्य था॥
भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय व विकास की प्रक्रिया स्वरूप से बहुआयामी रही है यह पश्चिमी राष्ट्रवाद से प्रभावित होने के बावजूद भी उसके स्वरूप और प्रकृति से भिन्न है। किन्तु भारत में राष्ट्रवाद के बारे में एक भ्रम और अनिश्चयता की स्थिति भी सदा से बनी हुई है उसका कारण है शैक्षिक पाठ्यक्रम के माध्यम से राष्ट्रवाद के संदर्भ में भारतीय राजनैतिक विचारों के विमर्श का अभाव और पाठ्यपुस्तकों में जबरदस्ती थोपी गई पश्चिमी उपनिवेशवादी राजनैतिक विचारों का प्रभाव। भारत में अंग्रेजों के आने से पहले देश में ऐसी सामाजिक संरचना थी जो पूर्व मध्यकालीन यूरोपीय समाजों से आर्थिक दृष्टि से भिन्न थी। भारत विविध भाषा-भाषी और अनेक धर्मों के अनुयायियों वाले विशाल जनसंख्या का देश है। सामाजिक दृष्टि से देश की जनसंख्या विभिन्न जातियों और उपजातियों में विभाजित रही है। स्वयं हिन्दू समाज में कितने ही प्रकार के दर्शन और पूजा पद्धतियाँ सम्मिलित हैं जिनके कारण वह अनेक सामाजिक और धार्मिक वर्गों में बँटा हुआ दिखाई देता है। विशाल आकार के कारण भारत की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संरचना तथा राष्ट्रीयता के विचारों का उदय यहां पर पश्चिमी देशों की तरह नहीं हुआ है।
किंतु अंग्रेज प्रशासकों द्वारा ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का अवलम्बन करते हुए उनका मूल्यांकन अगडी और पिछड़ी जातियों के रूप में विभाजित उपसमाजों के रूप में किया गया। कुछ भ्रामक धर्मशास्त्र की मान्यताओं के आधार पर अगड़ी जातियों को शोषक और पिछड़ी जातियों को शोषित मान लिया गया। इसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में भी दरार डालने के मकसद से ‘अल्प संख्यक’ की अवधारणा से भारत के विभिन्न धर्मों के मध्य विभेद की नीति पैदा की गई और उनमें यह विचार थोपा गया कि बहुसंख्यक समुदाय उन पर सदा जुल्म और अत्याचार करते आए हैं इसलिए उन्हें सरकारी आश्रय की जरूरत है।
इसी कारण सर जॉन स्ट्रेची ने भारत की विभिन्नताओं को पश्चिमी राष्ट्रवाद के नजरिए से देखते हुए कहा है कि ” भारतवर्ष न कभी था और न है और न उसमें यूरोपीय विचारों के अनुसार किसी प्रकार की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक एकता थी, न कोई भारतीय राष्ट्र और न कोई भारतीय ही था जिसके विषय में हम बहुत अधिक सुनते हैं।“ इस सम्बन्ध में सर जॉन शिले का कहना है कि ”यह विचार कि भारतवर्ष एक राष्ट्र है, उस मूल पर आधारित है जिसको राजनीतिक शास्त्र स्वीकार नहीं करता और दूर करने का प्रयत्न करता है। भारतवर्ष एक राजनीतिक नाम नही हैं वरन् एक भौगोलिक नाम है जिस प्रकार यूरोप या अफ्रीका।“ यानी पश्चिमी विचारकों के अनुसार भारत के भौगोलिक नक्शे को तो आप राष्ट्र कह सकते हैं किन्तु आपस में लड़ने वाली इन जातियों और उपजातियों में एक राष्ट्र होने के लक्षण कभी नहीं रहे।
राष्ट्रवाद से सम्बद्ध उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट है कि भारत में राष्ट्रवाद के उदय और विकास के बारे में जो मान्यताएं और भ्रांतियां अंग्रेज प्रशासकों द्वारा स्थापित की गई हैं वे पश्चिमी राष्ट्रवाद की अवधारणाओं से प्रेरित हैं। वास्तविकता यह है कि भारतीय समाज की विभिन्नताओं में ही बहुलतावादी मौलिक एकता राष्ट्रवाद के रूप में सदैव जीवित रही है और इसी राष्ट्रवाद के परिणाम स्वरूप समय-समय पर राजनीतिक एकता की भावना का भी उदय होता रहा है। इतिहासकार वी.ए.स्मिथ भी यह स्वीकार करते हैं कि “वास्तव में भारतवर्ष की एकता उसकी विभिन्नताओं में ही निहित है।”
डॉ॰ आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि 19वीं शताब्दी मे यूरोप में जो स्वाधीनता संग्राम लड़े गए, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को काफी प्रभावित किया। फ्रांस की 1830 ई. एवं 1848 ई. की क्रान्ति ने भारतीयों में बलिदान की भावना जागृत की। इटली तथा यूनान की स्वाधीनता ने उनके उत्साह को बढाया।उस समय आयरलैण्ड भी अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्त होने का प्रयास कर रहा था,उससे भी भारतीय जनता को पर्याप्त प्रेरणा मिली।
इटली, जर्मनी, और रुमानिया के राजनीतिक आन्दोलन, इंग्लैण्ड मे सुधार कानूनों का पारित होना एवं अमेरिका का स्वतन्त्रता संग्राम आदि कुछ समकालीन घटनाएं थीं जिन्होंने भारतीयों को अपने देश की आजादी के लिए लड़ने का साहस पैदा किया। इस प्रकार विदेशी आन्दोलनों ने भारतीयों मे देश भक्ति और देश प्रेम की भावना को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और उन्हें स्वाधीनता प्राप्त करने के संघर्ष हेतु संजीवनी प्रदान की। यह भी एक महत्त्वपूर्ण कारण है कि ब्रिटिश शासन की स्थापना से भारतीय समाज में नए विचारों तथा नई परम्पराओं को जन्म मिला है।
पर इन विचारों तथा परम्पराओं के बीच हुई क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के परिणाम स्वरूप आधुनिक भारत में जिस नव राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय विचारों का उदय हुआ उसकी प्रकृति विशुद्ध भारतीय थी, उसका अवतरण यद्यपि पश्चिमी वेशभूषा में हुआ परंतु उसके प्रेरणास्रोत भारत के प्राचीन वैदिक साहित्य और लौकिक संस्कृत साहित्य में उद्घाटित विशुद्ध भारतीय विचार थे जिसकी विस्तार से चर्चा हम आगे करेंगे।
दरअसल‚ भारत में आधुनिक राष्ट्रवादी विचारधारा का अंकुर सत्रहवीं शताब्दी के मध्य से उगने लगा था किन्तु यह धीरे-धीरे विकसित होता रहा अन्त मे 1857 ई. में इसने पूर्ण क्रान्ति का रूप धारण किया था। कुछ इतिहासकार इसे सिपाही विद्रोह की संज्ञा देते हैं जिसे भारत के देशी रियासतों की मदद से विफल कर दिया गया। पर इस विद्रोह की खासियत यह थी कि राष्ट्रवादी दलित और सवर्ण जातियों ने तथा हिन्दू और मुस्लिम धर्मानुयायियों ने अपने तमाम आपसी भेदभाव भुलाकर पहली बार ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोला था किन्तु देशी रियासतों के कुछ स्वार्थी राजाओं और सामंती शक्तियों ने अंग्रेजों का साथ दिया और क्रांतिकारियों की आजादी की लड़ाई को कुचल दिया गया।
सन् 1857 ई. की क्रान्ति की असफलता के संबंध में ‘भारत कोश’ की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है- “पटियाला, ग्वालियर एवं हैदराबाद के राजाओं ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेज़ों का पूरा सहयोग किया। संकट के समय लॉर्ड कैनिंग ने कहा था कि, "यदि सिन्धिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाएँ, तो मुझे कल ही भारत छोड़ना पड़ेगा"। विद्रोह दमन के पश्चात् भारतीय राजाओं को पुरस्कृत किया गया। निज़ाम को बरार का प्रान्त लौटा दिया गया और उसके ऋण माफ कर दिये गये। सिन्धिया, गायकवाड़ और राजपूत राजाओं को भी पुरस्कार मिले। ”
किन्तु देश के जिन देश भक्त क्रांतिकारी सपूतों और वीरांगनाओं ने इस आजादी की लड़ाई में वीरतापूर्वक लड़ते हुए अपने प्राण न्योछावर किए उनमें सिपाही विद्रोह का मुख्य नायक मंगल पांडे, बुन्देलखण्ड की महारानी झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के नाम सर्वोपरि हैं। इस संग्राम में नाना साहब के सेनापति तात्या टोपे को बन्दी बनाकर फ़ाँसी दे दी गई। दिल्ली पर जब अंग्रेज़ों का पुन: अधिकार हुआ, बहादुरशाह द्वितीय को बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गई। उसके दो पुत्रों और पौत्रों को कर्नल हाड्सन ने बिना किसी न्यायिक जाँच के गोली से उड़ा दिया।
1857 ई. के इस विद्रोह की विफलता का एक कारण था शिक्षित वर्ग का पूर्ण रूप से इस विद्रोह के प्रति उदासीन रहना। इस विद्रोह में 'राष्ट्रीय भावना' का भी पूर्णतया अभाव था, यदि जनसामान्य में राष्ट्रीय चेतना का प्रचार –प्रसार किया होता, और विभिन्न रियासतों ने ब्रिटिश हुकुमत का साथ नहीं दिया होता तो निःसंदेह ही क्रान्ति के इस विद्रोह का परिणाम कुछ ओर ही होता। दुर्भाग्य रहा कि भारतीय समाज के सभी वर्गों का सहयोग इस 1857 के विद्रोह को नहीं मिल सका। किन्तु अंग्रेजों की इस दमनपूर्ण नीति के विरुद्ध देश की आजादी और राष्ट्रीय पुनर्जागरण का जन आन्दोलन कालान्तर में थमा नहीं और भी तीव्र और विराट् हो गया जिसकी चर्चा आगामी पोस्ट में जारी रहेगी।
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