आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा जाता है। वाग्भट (२) धातु (आयुर्वेद), हेतुओं का शरीर पर प्रभाव,आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं,परिभाषा एवं व्याख्या,,आयुर्वैदिक चिकित्सा के लाभ— आयुर्वेद ग्रन्थ एवं उनके रचनाकार,रोग और स्वास्थ्यकायचिकित्सा (Medicine) एवं शल्यचिकित्सा (Surgery)। ,धन्वंतरी रसविद्या वृहत्त्रयी : * चरकसंहिता --- चरक * सुश्रुतसंहिता --- सुश्रुत * अष्टांगहृदय --- वाग्भट लघुत्रयी : * भावप्रकाश --- भाव मिश्र * माधव निदान --- माधवकर * शार्ङ्गधरसंहिता -- शार्ङ्गधर (१३०० ई) अन्य: अष्टांगसंग्रह (४०० ई) बहि:परिमार्जन (एक्स्टर्नल मेडिकेशन), अंत:परिमार्जन (औषधियों का आभ्यंतर प्रयोग)औषध,रोगी की परीक्षा, रोगी परीक्षा के साधन चार हैं - आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति। रोग जानकारी के साधन : लिंग इसके चार भेद हैं पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय।पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संचार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसका रचना काल ईसा के ३,००० से ५०,००० वर्ष पूर्व तक का माना है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थ आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं।
: आयुर्वेद (आयुः + वेद = आयुर्वेद) विश्व की
प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। यह ऋग्वेद का उपवेद है। यह विज्ञान, कला और दर्शन का मिश्रण है। ‘आयुर्वेद’ नाम का अर्थ है,
‘जीवन का ज्ञान’ और यही संक्षेप में आयुर्वेद का सार है।
"आयुर्वेद " शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है -
"आयुष" और "वेद"।
हिताहितं
सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ -(चरक संहिता १/४०)
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ -(चरक संहिता १/४०)
(अर्थात जिस ग्रंथ में - हित आयु (जीवन के अनुकूल), अहित आयु (जीवन के प्रतिकूल), सुख आयु (स्वस्थ जीवन), एवं दुःख आयु (रोग अवस्था) - इनका वर्णन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं।)
आयुर्वेद और आयुर्विज्ञान
दोनों ही चिकित्साशास्त्र हैं परन्तु व्यवहार में चिकित्साशास्त्र के प्राचीन
भारतीय ढंग को आयुर्वेद कहते हैं और ऐलोपैथिक प्रणाली (जनता की भाषा में
"डाक्टरी') को आयुर्विज्ञान का नाम दिया जाता है।
आयुर्वेद की परिभाषा एवं
व्याख्या
आयुर्वेद विश्व में विद्यमान वह साहित्य है, जिसके अध्ययन पश्चात हम अपने ही जीवन शैली का विश्लेषण कर सकते
आयुर्वेद विश्व में विद्यमान वह साहित्य है, जिसके अध्ययन पश्चात हम अपने ही जीवन शैली का विश्लेषण कर सकते
आयुर्वेदयति बोधयति इति आयुर्वेदः।
अर्थात जो शास्त्र (विज्ञान) आयु (जीवन) का ज्ञान कराता है उसे आयुर्वेद कहते हैं।
(2) स्वस्थ व्यक्ति एवं आतुर (रोगी) के लिए उत्तम मार्ग बताने वाला विज्ञान को आयुर्वेद कहते हैं।
अर्थात जो शास्त्र (विज्ञान) आयु (जीवन) का ज्ञान कराता है उसे आयुर्वेद कहते हैं।
(2) स्वस्थ व्यक्ति एवं आतुर (रोगी) के लिए उत्तम मार्ग बताने वाला विज्ञान को आयुर्वेद कहते हैं।
(3) अर्थात जिस शास्त्र में आयु शाखा (उम्र का विभाजन), आयु विद्या, आयुसूत्र, आयु ज्ञान, आयु लक्षण (प्राण होने के चिन्ह), आयु तंत्र (शारीरिक रचना
शारीरिक क्रियाएं) - इन सम्पूर्ण विषयों की जानकारी मिलती है वह आयुर्वेद है।
इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार
माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। अश्विनी
कुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के
राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा।
अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं।
आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य
(अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक।
आयुर्वैदिक चिकित्सा के लाभ
आयुर्वेद का अर्थ प्राचीन
आचार्यों की व्याख्या और इसमें आए हुए 'आयु' और 'वेद' इन दो शब्दों के अर्थों के
अनुसार बहुत व्यापक है। आयुर्वेद के आचार्यों ने 'शरीर, इंद्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग' को आयु कहा है। अर्थात् जब तक इन चारों संपत्ति (साद्गुण्य) या
विपत्ति (वैगुण्य) के अनुसार आयु के अनेक भेद होते हैं, किंतु संक्षेप में प्रभावभेद से इसे चार प्रकार का माना गया है :(१) सुखायु , (२) दुखायु , (३) हितायु , (४) अहितायु
आयु के वेद को आयुर्वेद (नॉलेज ऑव सायन्स ऑव लाइफ़) कहते हैं।
ये सात धातुएँ हैं !
आयुर्वेद के अनुसार शरीर
में रस (बाइल ऐंड प्लाज्मा),
रक्त, मांस, मेद (फ़ैट), अस्थि, मज्जा (बोन मैरो) और शुक्र (सीमेन), ये सात धातुएँ हैं।
नित्यप्रति स्वाभावत: विविध कार्यों में उपयोग होने से इनका क्षय भी होता रहता है, किंतु भोजन और पान के रूप में हम जो विविध पदार्थ लेते रहते हैं उनसे
न केवल इस क्षति की पूर्ति होती है, वरन् धातुओं की पुष्टि भी
होती रहती है। आहाररूप में लिया हुआ पदार्थ पाचकाग्नि, भूताग्नि और विभिन्न धात्वनिग्नयों द्वारा परिपक्व होकर अनेक
परिवर्तनों के बाद पूर्वोक्त धातुओं के रूप में परिणत होकर इन धातुओं का पोषण करता
है। इस पाचनक्रिया में आहार का जो सार भाग होता है उससे रस धातु का पोषण होता है
और जो किट्ट भाग बचता है उससे मल (विष्ठा) और मूत्र बनता है। यह रस हृदय से होता
हुआ शिराओं द्वारा सारे शरीर में पहुँचकर प्रत्येक धातु और अंग को पोषण प्रदान
करता है। धात्वग्नियों से पाचन होने पर रस आदि धातु के सार भाग से रक्त आदि धातुओं
एवं शरीर का भी पोषण होता है तथा किट्ट भाग से मलों की उत्पत्ति होती है, जैसे रस से कफ;
रक्त पित्त; मांस से नाक, कान और नेत्र आदि के द्वारा बाहर आनेवाले मल; मेद से स्वेद (पसीना); अस्थि से केश तथा लोम (सिर
के और दाढ़ी, मूंछ आदि के बाल) और मज्जा से आंख का कीचड़ मलरूप
में बनते हैं। शुक्र में कोई मल नहीं होता, उसके सारे भाग से ओज (बल)
की उत्पत्ति होती है।
इन्हीं रसादि धातुओं से
अनेक उपधातुओं की भी उत्पत्ति होती है, यथा रस से दूध, रक्त से कंडराएं (टेंडंस) और शिराएँ, मांस से वसा (फ़ैट), त्वचा और उसके छह या सात स्तर (परत), मेद से स्नायु
(लिंगामेंट्स), अस्थि से दांत, मज्जा से केश और शुक्र से
ओज नामक उपधातुओं की उत्पत्ति होती है।
ये धातुएं और उपधातुएं
विभिन्न अवयवों में विभिन्न रूपों में स्थित होकर शरीर की विभिन्न क्रियाओं में
उपयोगी होती हैं। जब तक ये उचित परिमाण और स्वरूप में रहती हैं और इनकी क्रिया
स्वाभाविक रहती है तब तक शरीर स्वस्थ रहता है और जब ये न्यून या अधिक मात्रा में
तथा विकृत स्वरूप में होती हैं तो शरीर में रोग की उत्पत्ति होती है।
रोग और स्वास्थ्य
चरक ने संक्षेप में रोग और आरोग्य का लक्षण यह लिखा
है-
वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों का सम मात्रा (उचित प्रमाण) में होना ही
आरोग्य और इनमें विषमता होना ही रोग है।
सुश्रुत ने स्वस्थ व्यक्ति का लक्षण विस्तार से दिया है-
सुश्रुत ने स्वस्थ व्यक्ति का लक्षण विस्तार से दिया है-
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥
जिससे सभी दोष सम मात्रा में हों, अग्नि सम हो, धातु, मल और उनकी क्रियाएं भी सम (उचित रूप में) हों तथा जिसकी आत्मा, इंद्रिय और मन प्रसन्न (शुद्ध) हों उसे स्वस्थ समझना चाहिए।
इसके विपरीत लक्षण हों तो अस्वस्थ समझना चाहिए। रोग को विकृति या विकार भी कहते हैं। अत: शरीर, इंद्रिय और मन के प्राकृतिक (स्वाभाविक) रूप या क्रिया में विकृति होना रोग है।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥
जिससे सभी दोष सम मात्रा में हों, अग्नि सम हो, धातु, मल और उनकी क्रियाएं भी सम (उचित रूप में) हों तथा जिसकी आत्मा, इंद्रिय और मन प्रसन्न (शुद्ध) हों उसे स्वस्थ समझना चाहिए।
इसके विपरीत लक्षण हों तो अस्वस्थ समझना चाहिए। रोग को विकृति या विकार भी कहते हैं। अत: शरीर, इंद्रिय और मन के प्राकृतिक (स्वाभाविक) रूप या क्रिया में विकृति होना रोग है।
रोगों के हेतु या कारण (इटियॉलोजी)
सेतिकर्तव्यताको रोगोत्पादक हेतू निदानम।
रोग के कारण को 'निदान' यह पर्यायी शब्द आया है। जब किसी आहार या विहार से शरीर पर रोग प्रादुर्भाव दिखलाए तब उसे निदान कहते हैं।
रोग के कारण को 'निदान' यह पर्यायी शब्द आया है। जब किसी आहार या विहार से शरीर पर रोग प्रादुर्भाव दिखलाए तब उसे निदान कहते हैं।
संसार की सभी वस्तुएँ
साक्षात् या परंपरा से शरीर,
इंद्रियों और मन पर किसी न
किसी प्रकार का निश्चित प्रभाव डालती हैं और अनुचित या प्रतिकूल प्रभाव से इनमें
विकार उत्पन्न कर रोगों का कारण होती हैं। इन सबका विस्तृत विवेचन कठिन है, अत: संक्षेप में इन्हें तीन वर्गों में बाँट दिया गया है :
(१) प्रज्ञापराध : अविवेक , (स्मृतिभ्रंश) के कारण लाभ हानि का विचार किए बिना ही किसी विषय का
सेवन या जानते हुए भी अनुचित वस्तु का सेवन करना। इसी को दूसरे और स्पष्ट शब्दों
में कर्म (शारीरिक, वाचिक और मानसिक चेष्टाएं) का हीन, मिथ्या और अति योग भी कहते हैं।
(२)
असात्म्येंद्रियार्थसंयोग : चक्षु आदि इंद्रियों का अपने-अपने रूप आदि विषयों के
साथ असात्म्य (प्रतिकूल, हीन, मिथ्या और अति) संयोग इंद्रियों, शरीर और मन के विकार का कारण होता है; यथा आँख से बिलकुल न देखना (अयोग), अति तेजस्वी वस्तुओं का देखना और बहुत अधिक देखना (अतियोग) तथा
अतिसूक्ष्म,
संकीर्ण, अति दूर में स्थित तथा
भयानक, बीभत्स, एवं विकृतरूप वस्तुओं को
देखना (मिथ्यारोग)।
हेतुओं का शरीर पर प्रभाव
शरीर पर इन सभी कारणों के तीन प्रकार के प्रभाव होते हैं :
(१) दोषप्रकोप- अनेक कारणों से शरीर के उपादानभूत
आकाश आदि पांच तत्वों में से किसी एक या अनेक में परिवर्तन होकर उनके स्वाभाविक
अनुपात में अंतर आ जाना अनिवार्य है। इसी को ध्यान में रखकर आयुर्वेदाचार्यों ने
इन विकारों को वात, पित्त और कफ इन वर्गों में विभक्त किया है।
पंचमहाभूत एवं त्रिदोष का अलग से विवेचन ही उचित है, किंतु संक्षेप में यह समझना
चाहिए कि संसार के जितने भी मूर्त (मैटिरयल) पदार्थ हैं वे सब आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी इन पांच
तत्वों से बने हैं।
ये पृथ्वी आदि वे ही नहीं
है जो हमें नित्यप्रति स्थूल जगत् में देखने को मिलते हैं। ये पिछले सब तो
पूर्वोक्त पांचों तत्वों के संयोग से उत्पन्न पांचभौतिक हैं। वस्तुओं में जिन
तत्वों की बहुलता होती है वे उन्हीं नामों से वर्णित की जाती हैं। उसी प्रकार हमारे शरीर की धातुओं में या उनके संघटकों
में जिस तत्व की बहुलता रहती है वे उसी श्रेणी के गिने जाते हैं। इन पांचों में
आकाश तो निर्विकार है तथा पृथ्वी सबसे स्थूल और सभी का आश्रय है। जो कुछ भी विकास
या परिवर्तन होते हैं उनका प्रभाव इसी पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। शेष तीन (वायु, तेज और जल) सब प्रकार के परिवर्तन या विकार उत्पन्न करने में समर्थ
होते हैं। अत: तीनों की प्रचुरता के आधार पर, विभिन्न धातुओं एवं उनके
संघटकों को वात, पित्त और कफ की संज्ञा दी गई है। सामान्य रूप से
ये तीनों धातुएं शरीर की पोषक होने के कारण विकृत होने पर अन्य धातुओं को भी दूषित
करती हैं। अत: दोष तथा मल रूप होने से मल कहलाती हैं। रोग में किसी भी कारण से
इन्हीं तीनों की न्यूनता या अधिकता होती है, जिसे दोषप्रकोप कहते हैं।
(२) धातुदूषण- कुछ पदार्थ या कारण ऐसे होते हैं जो
किसी विशिष्ट धातु या अवयव में ही विकार करते हैं। इनका प्रभाव सारे शरीर पर नहीं
होता। इन्हें धातुप्रदूषक कहते हैं।
(३) उभयहेतु- वे पदार्थ जो सारे शरीर में वात आदि
दोषों को कुपित करते हुए भी किसी धातु या अंग विशेष में ही विशेष विकार उत्पन्न
करते हैं, उभयहेतु कहलाते हैं। किंतु इन तीनों में जो
परिवर्तन होते हैं वे वात, पित्त या कफ इन तीनों में से किसी एक, दो या तीनों में ही विकार उत्पन्न करते हैं। अत: ये ही तीनों दोष
प्रधान शरीरगत कारण होते हैं,
क्योंकि इनके स्वाभाविक
अनुपात में परिवर्तन होने से शरीर की धातुओं आदि में भी विकृति होती है। रचना में
विकार होने से क्रिया में भी विकार होना स्वाभाविक है। इस अस्वाभाविक रचना और
क्रिया के परिणामस्वरूप अतिसार,
कास आदि लक्षण उत्पन्न होते
हैं और इन लक्षणों के समूह को ही रोग कहते हैं।
रोग जानकारी के साधन : लिंग
इसके चार भेद हैं :
पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय।
उपशय के १८ -
उपशय के १८ भेदों का वर्णन किया है। ये सूत्र इतने महत्व के
हैं कि इनमें से एक-एक के आधार पर एक-एक चिकित्सापद्धति का उदय हो गया है; जैसे,
(१) हेतु के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग
करना।
(२) व्याधि, वेदना या लक्षणों के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। स्वयं ऐलोपैथी की स्थापना इसी पद्धति पर हुई थी (ऐलोज़ (= विपरीत) + अपैथोज़ (= वेदना) = ऐलोपैथी)।
(३) हेतु और व्याधि, दोनों के विपरीत आहार विहार और औषध का प्रयोग करना।
(४) हेतुविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग के कारण के समान होते हुए भी उस कारण के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग; जैसे, आग से जलने पर सेंकने या गरम वस्तुओं का लेप करने से उस स्थान पर रक्तसंचार बढ़कर दोषों का स्थानांतरण होता है तथा रक्त का जमना रुकने, पाक के रुकने पर शांति मिलती है।
(५) व्याधिविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग या वेदना को बढ़ानेवाला प्रतीत होते हुए भी व्याधि के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग (होमियापैथी से तुलना करें : होमियो (समान) अपैथोज़ (वेदना = होमियोपैथी)।
(६) उभयविरीतार्थकारी, अर्थात् कारण और वेदना दोनों के समान प्रतीत होते हुए भी दोनों के विपरीत कार्य करनेवाले आहार विहार और औषध का प्रयोग।
उपशय और अनुपशय से भी रोग की पहचान में सहायता मिलती है। अत: इनको भी प्राचीनों ने "लिंग' में ही गिना है। हेतु और लिंग के द्वारा रोग का ज्ञान प्राप्त करने पर ही उसकी उचित और सफल चिकित्सा (औषध) संभव है। हेतु और लिंगों से रोग की परीक्षा होती है, किंतु इनके समुचित ज्ञान के लिए रोगी की परीक्षा करनी चाहिए।
(२) व्याधि, वेदना या लक्षणों के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। स्वयं ऐलोपैथी की स्थापना इसी पद्धति पर हुई थी (ऐलोज़ (= विपरीत) + अपैथोज़ (= वेदना) = ऐलोपैथी)।
(३) हेतु और व्याधि, दोनों के विपरीत आहार विहार और औषध का प्रयोग करना।
(४) हेतुविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग के कारण के समान होते हुए भी उस कारण के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग; जैसे, आग से जलने पर सेंकने या गरम वस्तुओं का लेप करने से उस स्थान पर रक्तसंचार बढ़कर दोषों का स्थानांतरण होता है तथा रक्त का जमना रुकने, पाक के रुकने पर शांति मिलती है।
(५) व्याधिविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग या वेदना को बढ़ानेवाला प्रतीत होते हुए भी व्याधि के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग (होमियापैथी से तुलना करें : होमियो (समान) अपैथोज़ (वेदना = होमियोपैथी)।
(६) उभयविरीतार्थकारी, अर्थात् कारण और वेदना दोनों के समान प्रतीत होते हुए भी दोनों के विपरीत कार्य करनेवाले आहार विहार और औषध का प्रयोग।
उपशय और अनुपशय से भी रोग की पहचान में सहायता मिलती है। अत: इनको भी प्राचीनों ने "लिंग' में ही गिना है। हेतु और लिंग के द्वारा रोग का ज्ञान प्राप्त करने पर ही उसकी उचित और सफल चिकित्सा (औषध) संभव है। हेतु और लिंगों से रोग की परीक्षा होती है, किंतु इनके समुचित ज्ञान के लिए रोगी की परीक्षा करनी चाहिए।
रोगी की परीक्षा, रोगी परीक्षा के साधन चार हैं - आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष,
अनुमान और युक्ति।
आप्तोपदेश
योग्य अधिकारी, तप और ज्ञान से संपन्न होने के कारण, शास्त्रतत्वों को राग-द्वेष-शून्य बुद्धि से असंदिग्ध और यथार्थ रूप से जानते और कहते हैं। ऐसे विद्वान्, अनुसंधानशील, अनुभवी, पक्षपातहीन और यथार्थ वक्ता महापुरुषों को आप्त (अथॉरिटी) और उनके वचनों या लेखों को आप्तोपदेश कहते हैं।
योग्य अधिकारी, तप और ज्ञान से संपन्न होने के कारण, शास्त्रतत्वों को राग-द्वेष-शून्य बुद्धि से असंदिग्ध और यथार्थ रूप से जानते और कहते हैं। ऐसे विद्वान्, अनुसंधानशील, अनुभवी, पक्षपातहीन और यथार्थ वक्ता महापुरुषों को आप्त (अथॉरिटी) और उनके वचनों या लेखों को आप्तोपदेश कहते हैं।
प्रत्यक्ष
मनोयोगपूर्वक इंद्रियों द्वारा विषयों का अनुभव प्राप्त करने को प्रत्यक्ष कहते हैं। इसके द्वारा रोगी के शरीर के अंग प्रत्यंग में होनेवाले विभिन्न शब्दों (ध्वनियों) की परीक्षा कर उनके स्वाभाविक या अस्वाभाविक होने का ज्ञान श्रोत्रेंद्रिय द्वारा करना चाहिए। वर्ण, आकृति, लंबाई, चौड़ाई आदि प्रमाण तथा छाया आदि का ज्ञान नेत्रों द्वारा, गंधों का ज्ञान घ्राणेन्द्रिय तथा शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध एवं नाड़ी आदि के स्पंदन आदि भावों का ज्ञान स्पर्शेंद्रिय द्वारा प्राप्त करना चाहिए।
मनोयोगपूर्वक इंद्रियों द्वारा विषयों का अनुभव प्राप्त करने को प्रत्यक्ष कहते हैं। इसके द्वारा रोगी के शरीर के अंग प्रत्यंग में होनेवाले विभिन्न शब्दों (ध्वनियों) की परीक्षा कर उनके स्वाभाविक या अस्वाभाविक होने का ज्ञान श्रोत्रेंद्रिय द्वारा करना चाहिए। वर्ण, आकृति, लंबाई, चौड़ाई आदि प्रमाण तथा छाया आदि का ज्ञान नेत्रों द्वारा, गंधों का ज्ञान घ्राणेन्द्रिय तथा शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध एवं नाड़ी आदि के स्पंदन आदि भावों का ज्ञान स्पर्शेंद्रिय द्वारा प्राप्त करना चाहिए।
अनुमान
युक्तिपूर्वक तर्क (ऊहापाह) के द्वारा प्राप्त ज्ञान अनुमान (इनफ़रेंस) है। जिन विषयों का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता या प्रत्यक्ष होने पर भी उनके संबंध में संदेह होता है वहाँ अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहिए; यथा, पाचनशक्ति के आधार पर अग्निबल का, व्यायाम की शक्ति के आधार पर शारीरिक बल का, अपने विषयों को ग्रहण करने या न करने से इंद्रियों की प्रकृति या विकृति का तथा इसी प्रकार भोजन में रुचि, अरुचि तथा प्यास एवं भय, शोक, क्रोध, इच्छा, द्वेष आदि मानसिक भावों के द्वारा विभिन्न शारीरिक और मानसिक विषयों का अनुमान करना चाहिए। पूर्वोक्त उपशयानुपशय भी अनुमान का ही विषय है।
युक्तिपूर्वक तर्क (ऊहापाह) के द्वारा प्राप्त ज्ञान अनुमान (इनफ़रेंस) है। जिन विषयों का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता या प्रत्यक्ष होने पर भी उनके संबंध में संदेह होता है वहाँ अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहिए; यथा, पाचनशक्ति के आधार पर अग्निबल का, व्यायाम की शक्ति के आधार पर शारीरिक बल का, अपने विषयों को ग्रहण करने या न करने से इंद्रियों की प्रकृति या विकृति का तथा इसी प्रकार भोजन में रुचि, अरुचि तथा प्यास एवं भय, शोक, क्रोध, इच्छा, द्वेष आदि मानसिक भावों के द्वारा विभिन्न शारीरिक और मानसिक विषयों का अनुमान करना चाहिए। पूर्वोक्त उपशयानुपशय भी अनुमान का ही विषय है।
युक्ति
इसका अर्थ है योजना। अनेक कारणों के सामुदायिक प्रभाव से किसी विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति को देखकर, तदनुकूल विचारों से जो कल्पना की जाती है उसे युक्ति कहते हैं। जैसे खेत, जल, जुताई, बीज और ऋतु के संयोग से ही पौधा उगता है। धुएं का आग के साथ सदैव संबंध रहता है, अर्थात् जहाँ धुआँ होगा वहाँ आग भी होगी। इसी को व्याप्तिज्ञान भी कहते हैं और इसी के आधार पर तर्क कर अनुमान किया जाता है। इस प्रकार निदान, पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय इन सभी के सामुदायिक विचार से रोग का निर्णय युक्तियुक्त होता है।
इसका अर्थ है योजना। अनेक कारणों के सामुदायिक प्रभाव से किसी विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति को देखकर, तदनुकूल विचारों से जो कल्पना की जाती है उसे युक्ति कहते हैं। जैसे खेत, जल, जुताई, बीज और ऋतु के संयोग से ही पौधा उगता है। धुएं का आग के साथ सदैव संबंध रहता है, अर्थात् जहाँ धुआँ होगा वहाँ आग भी होगी। इसी को व्याप्तिज्ञान भी कहते हैं और इसी के आधार पर तर्क कर अनुमान किया जाता है। इस प्रकार निदान, पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय इन सभी के सामुदायिक विचार से रोग का निर्णय युक्तियुक्त होता है।
औषध
जिन साधनों के द्वारा रोगों के कारणभूत दोषों एवं शारीरिक विकृतियों
का शमन किया जाता है उन्हें औषध कहते हैं। ये मख्यतः दो प्रकार की होती है :
अपद्रव्यभूत और द्रव्यभूत। अद्रव्यभूत औषध वह है
जिसमें किसी द्रव्य का उपयोग नहीं होता, जैसे उपवास, विश्राम, सोना, जागना, टहलना, व्यायाम आदि।
बाह्य या आभ्यंतर प्रयोगों
द्वारा शरीर में जिन बाह्य द्रव्यों (ड्रग्स) का प्रयोग होता है वे द्रव्यभूत औषध
हैं। ये द्रव्य संक्षेप में तीन प्रकार के होते हैं :
(१) जांगम (ऐनिमल ड्रग्स), जो विभिन्न प्राणियों के
शरीर से प्राप्त होते हैं, जैसे मधु, दूध, दही, घी, मक्खन, मठ्ठा, पित्त, वसा, मज्जा, रक्त, मांस, पुरीष, मूत्र, शुक्र, चर्म, अस्थि, श्रृंग, खुर, नख, लोम आदि;
(२) औद्भिद (हर्बल ड्रग्स) : मूल (जड़), फल आदि
(३) पार्थिव (खनिज, मिनरल ड्रग्स), जैसे सोना, चांदी, सीसा, रांगा, तांबा, लोहा, चूना, खड़िया, अभ्रक, संखिया, हरताल, मैनसिल, अंजन (एंटीमनी), गेरू, नमक आदि।
(२) औद्भिद (हर्बल ड्रग्स) : मूल (जड़), फल आदि
(३) पार्थिव (खनिज, मिनरल ड्रग्स), जैसे सोना, चांदी, सीसा, रांगा, तांबा, लोहा, चूना, खड़िया, अभ्रक, संखिया, हरताल, मैनसिल, अंजन (एंटीमनी), गेरू, नमक आदि।
अंत:परिमार्जन (औषधियों का
आभ्यंतर प्रयोग)
इसके भी दो मुख्य प्रकार हैं :
इसके भी दो मुख्य प्रकार हैं :
(१) अपतर्पण या शोधन या लंघन;
(२) संतर्पण या शमन या बृंहण (खिलाना)।
शारीरिक दोषों को बाहर निकालने के उपायों को शोधन कहते हैं, उसके वमन, विरेचन (पर्गेटिव), वस्ति (निरूहण), अनुवासन और उत्तरवस्ति (एनिमैटा तथा कैथेटर्स का प्रयोग), शिरोविरेचन (स्नफ़्स आदि) तथा रक्तामोक्षण (वेनिसेक्शन या ब्लड लेटिंग), ये पांच उपाय हैं।
(२) संतर्पण या शमन या बृंहण (खिलाना)।
शारीरिक दोषों को बाहर निकालने के उपायों को शोधन कहते हैं, उसके वमन, विरेचन (पर्गेटिव), वस्ति (निरूहण), अनुवासन और उत्तरवस्ति (एनिमैटा तथा कैथेटर्स का प्रयोग), शिरोविरेचन (स्नफ़्स आदि) तथा रक्तामोक्षण (वेनिसेक्शन या ब्लड लेटिंग), ये पांच उपाय हैं।
बहि:परिमार्जन (एक्स्टर्नल
मेडिकेशन)
जैसे अभ्यंग, स्नान, लेप, धूपन, स्वेदन आदि।
जैसे अभ्यंग, स्नान, लेप, धूपन, स्वेदन आदि।
शस्त्रकर्म- विभिन्न अवस्थाओं में निम्नलिखित आठ प्रकार के शस्त्रकर्मों में से
कोई एक या अनेक करने पड़ते हैं :
१. छेदन- काटकर दो फांक
करना या शरीर से अलग करना (एक्सिज़न),
२. भेदन- चीरना (इंसिज़न),
३. लेखन- खुरचना (स्क्रेपिंग या स्कैरिफ़िकेशन),
४. वेधन- नुकीले शस्त्र से छेदना (पंक्चरिंग),
५. एषण (प्रोबिंग),
६. आहरण- खींचकर बाहर निकालना (एक्स्ट्रैक्शन),
७. विस्रावण-रक्त, पूय आदि को चुवाना (ड्रेनेज),
८. सीवन- सीना (स्यूचरिंग या स्टिचिंग)।
इनके अतिरिक्त उत्पाटन (उखाड़ना), कुट्टन (कुचकुचाना, प्रिकिंग), मंथन (मथना, ड्रिलिंग), दहन (जलाना, कॉटराइज़ेशन) आदि उपशस्त्रकर्म भी होते हैं। शस्त्रकर्म (ऑपरेशन) के पूर्व की तैयारी को पूर्वकर्म कहते हैं, जैसे रोगी का शोधन, यंत्र (ब्लंट इंस्ट्रुमेंट्स), शस्त्र (शार्प इंस्ट्रुमेंट्स) तथा शस्त्रकर्म के समय एवं बाद में आवश्यक रुई, वस्त्र, पट्टी, घृत, तेल, क्वाथ, लेप आदि की तैयारी और शुद्धि। वास्तविक शस्त्रकर्म को प्रधान कर्म कहते हैं। शस्त्रकर्म के बाद शोधन, रोहण, रोपण, त्वक्स्थापन, सवर्णीकरण, रोमजनन आदि उपाय पश्चात्कर्म हैं।
२. भेदन- चीरना (इंसिज़न),
३. लेखन- खुरचना (स्क्रेपिंग या स्कैरिफ़िकेशन),
४. वेधन- नुकीले शस्त्र से छेदना (पंक्चरिंग),
५. एषण (प्रोबिंग),
६. आहरण- खींचकर बाहर निकालना (एक्स्ट्रैक्शन),
७. विस्रावण-रक्त, पूय आदि को चुवाना (ड्रेनेज),
८. सीवन- सीना (स्यूचरिंग या स्टिचिंग)।
इनके अतिरिक्त उत्पाटन (उखाड़ना), कुट्टन (कुचकुचाना, प्रिकिंग), मंथन (मथना, ड्रिलिंग), दहन (जलाना, कॉटराइज़ेशन) आदि उपशस्त्रकर्म भी होते हैं। शस्त्रकर्म (ऑपरेशन) के पूर्व की तैयारी को पूर्वकर्म कहते हैं, जैसे रोगी का शोधन, यंत्र (ब्लंट इंस्ट्रुमेंट्स), शस्त्र (शार्प इंस्ट्रुमेंट्स) तथा शस्त्रकर्म के समय एवं बाद में आवश्यक रुई, वस्त्र, पट्टी, घृत, तेल, क्वाथ, लेप आदि की तैयारी और शुद्धि। वास्तविक शस्त्रकर्म को प्रधान कर्म कहते हैं। शस्त्रकर्म के बाद शोधन, रोहण, रोपण, त्वक्स्थापन, सवर्णीकरण, रोमजनन आदि उपाय पश्चात्कर्म हैं।
शस्त्रसाध्य तथा अन्य अनेक
रोगों में क्षार या अग्निप्रयोग के द्वारा भी चिकित्सा की जा सकती है। रक्त निकालने
के लिए जोंक, सींगी, तुंबी, प्रच्छान तथा शिरावेध का प्रयोग होता है
इंद्रियां - ये आयुर्वेद
में भौतिक मानी गई हैं। ये शरीराश्रित तथा मनोनियंत्रित होती हैं। अत: शरीर और मन
के आधार पर ही इनके रोगों की चिकित्सा की जाती है।
रसविद्या
वृहत्त्रयी :
* चरकसंहिता --- चरक
* सुश्रुतसंहिता --- सुश्रुत
* अष्टांगहृदय --- वाग्भट
लघुत्रयी :
* भावप्रकाश --- भाव मिश्र
* माधव निदान --- माधवकर
* शार्ङ्गधरसंहिता -- शार्ङ्गधर (१३०० ई)
अन्य:
अष्टांगसंग्रह (४०० ई)
भेलसंहिता -- भेलाचार्य
कश्यपसंहिता (इसमें कौमारभृत्य (बालचिकित्सा) की विशेष रूप से चर्चा है।)
वंगसेनसंहिता (या चिकित्सासारसंग्रह) -- वंगसेन
सुश्रुत [1] प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है।
* चरकसंहिता --- चरक
* सुश्रुतसंहिता --- सुश्रुत
* अष्टांगहृदय --- वाग्भट
लघुत्रयी :
* भावप्रकाश --- भाव मिश्र
* माधव निदान --- माधवकर
* शार्ङ्गधरसंहिता -- शार्ङ्गधर (१३०० ई)
अन्य:
अष्टांगसंग्रह (४०० ई)
भेलसंहिता -- भेलाचार्य
कश्यपसंहिता (इसमें कौमारभृत्य (बालचिकित्सा) की विशेष रूप से चर्चा है।)
वंगसेनसंहिता (या चिकित्सासारसंग्रह) -- वंगसेन
सुश्रुत [1] प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है।
अति प्राचीन काल से ही चिकित्सा के दो प्रमुख विभाग चले आ रहे हैं -
कायचिकित्सा (Medicine)
एवं शल्यचिकित्सा (Surgery)। इस आधार पर चिकित्सकों
में भी दो परंपराएँ चलती हैं। एक कायचिकित्सक (Physician) और दूसरा शल्यचिकित्सक (Surgeon)।
धन्वंतरी को हिन्दू धर्म में देवताओं के वैद्य माना जाता है। ये एक
महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार
ये भगवान विष्णु के अवतार समझे जाते हैं। इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन
के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी , चतुर्दशी को काली माता और
अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था।
इसीलिये दीपावली के दो दिन
पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन
इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था।
भगवान विष्णु का रूप कहते
हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये
हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये
हुये हैं।
इनका प्रिय धातु पीतल माना
जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है। इन्हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते
हैं। इन्होंने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए
जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय
काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे। सुश्रुत दिवोदास के ही
शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे। उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी।
सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे।
दीपावली के अवसर पर कार्तिक
त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं। कहते हैं कि शंकर ने विषपान
किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी
कालजयी नगरी बन गयी।
चरक एक महर्षि एवं आयुर्वेद
विशारद के रूप में विख्यात हैं। वे कुषाण राज्य के राजवैद्य थे। इनके द्वारा रचित
चरक संहिता एक प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ है। इसमें रोगनाशक एवं रोगनिरोधक दवाओं का
उल्लेख है तथा सोना, चाँदी, लोहा, पारा आदि धातुओं के भस्म एवं उनके उपयोग का वर्णन मिलता है। आचार्य
चरक ने आचार्य अग्निवेश के अग्निवेशतन्त्र में कुछ स्थान तथा अध्याय जोड्कर उसे
नया रूप दिया जिसे आज हम चरक संहिता के नाम से जानते है।
आयुर्वेद ग्रन्थ एवं उनके
रचनाकार
आयुर्वेद के मूल ग्रन्थों
में काश्यप संहिता, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भेलसंहिता तथा भारद्वाज संहिता में से काश्यप संहिता को अति प्राचीन
माना गया है। इसमें महर्षि कश्यप ने शंका समाधान की शैली में दुःखात्मक रोग, उनके निदान, रोगों का पश्रिहार तथा रोग परिहार के साधन (औषध)
इन चारों विषयों का भी प्रकार प्रतिपादन किया गया है। इसके पश्चात जीवक ने काश्यप
संहिता को संक्षिप्त कर ‘वृद्ध जीवकीय तंत्र‘ नाम से प्रकाशित है। इसके ८
भाग हैं- 1. कौमार भृत्य, 2. शल्य
क्रिया प्रधान शल्य, 3. शालाक्य, 4. वाजीकरण, 5. प्रधार रसायन, 6. शारीरिक-मानसिक चिकित्सा, 7. विष प्रशमन तथा 8.
भूत विद्या। इसी से यह ‘अष्टांग आयुर्वेद'
कहताला है।
पुनः इन विषयों को
प्रतिपादन के अनुसार आठ स्थानों में विभक्त किया गया। इनमें सूत्र स्थान में 30, निदान स्थान में 12,
चिकित्सा स्थान में 30, सिद्धि में 12, कल्प स्थान में 12, तथा खिल स्थान/भाग में 80 अध्याय है। इस प्रकार आचार्य जीवक ने कुल 200 अध्यायों में वृद्ध जीवकीय तंत्र को संग्रहीत कर आर्युविज्ञान का
प्रचार प्रसार किया। वृद्ध जीवकीय तंत्र नेपाल के राजकीय पुस्तकालय में उपलब्ध है।
आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा जाता है।
वाग्भट (२) धातु (आयुर्वेद)
आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्तों में सप्त धातुओं का बहुत महत्व है। इनसे शरीर का धारण होता है, इसी कारण से इन्हें 'धातु' कहा जाता है (धा = धारण करना)। ये संख्या में सात हैं -
आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्तों में सप्त धातुओं का बहुत महत्व है। इनसे शरीर का धारण होता है, इसी कारण से इन्हें 'धातु' कहा जाता है (धा = धारण करना)। ये संख्या में सात हैं -
1- रस धातु
2- रक्त धातु
3- मांस धातु
4- मेद धातु
5- अस्थि धातु
6- मज्जा धातु
7- शुक्र धातु
सप्त धातुयें वातादि दोषों से कुपित होंतीं हैं। जिस दोष की कमी या अधिकता होती है, सप्त धातुयें तदनुसार रोग अथवा शारीरिक विकृति उत्पन्न करती हैं।
2- रक्त धातु
3- मांस धातु
4- मेद धातु
5- अस्थि धातु
6- मज्जा धातु
7- शुक्र धातु
सप्त धातुयें वातादि दोषों से कुपित होंतीं हैं। जिस दोष की कमी या अधिकता होती है, सप्त धातुयें तदनुसार रोग अथवा शारीरिक विकृति उत्पन्न करती हैं।
आधुनिक आयुर्वेदज्ञ सप्त
धातुओं को 'पैथोलांजिकल बेसिस आंफ डिसीजेज' के समतुल्य मानते हैं।
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