लाल क़िला
Red Fort रक्तदुर्गम्
लाल किला मुगल बादशाह शाहजहाँ की नई राजधानी, शाहजहाँनाबाद का महल था। यह दिल्ली शहर की सातवीं मुस्लिम नगरी थी। उसने अपनी राजधानी को आगरा से दिल्ली बदला, अपने शासन की प्रतिष्ठा बढ़ाने हेतु, साथ ही अपनी नये-नये निर्माण कराने की महत्वकाँक्षा को नए मौके देने हेतु भी। इसमें उसकी मुख्य रुचि भी थी।
यह किला भी ताजमहल और आगरे के क़िले की भांति ही यमुना नदी के किनारे पर स्थित है। वही नदी का जल इस किले को घेरकर खाई को भरती थी। इसके पूर्वोत्तरी ओर की दीवार एक पुराने किले से लगी थी, जिसे सलीमगढ़ का किला भी कहते हैं। सलीमगढ़ का किला इस्लाम शाह सूरी ने 1546 में बनवाया था। लालकिले का निर्माण 1638 में आरम्भ होकर 1648 में पूर्ण हुआ। पर कुछ मतों के अनुसार इसे लालकोट का एक पुरातन किला एवं नगरी बताते हैं, जिसे शाहजहाँ ने कब्जा़ करके यह किला बनवाया था। लालकोट राजा पृथ्वीराज चौहान की बारहवीं सदी के अन्तिम दौर में राजधानी थी।
11 मार्च 1783 को, सिखों ने लालकिले में प्रवेश कर दीवान-ए-आम पर कब्जा़ कर लिया। नगर को मुगल वजी़रों ने अपने सिख साथियों का समर्पण कर दिया। यह कार्य करोर सिंहिया मिस्ल के सरदार बघेल सिंह धालीवाल के कमान में हुआ।
लालकिला सलीमगढ़ के पूर्वी छोर पर स्थित है। इसको अपना नाम लाल बलुआ पत्थर की प्राचीर एवं दीवार के कारण मिला है। यही इसकी चार दीवारी बनाती है। यह दीवार 1.5 मील (2.5 किमी) लम्बी है और नदी के किनारे से इसकी ऊँचाई 60 फीट (16मी), तथा 110 फीट (35 मी) ऊँची शहर की ओर से है। इसके नाप जोख करने पर ज्ञात हुआ है, कि इसकी योजना एक 82 मी की वर्गाकार ग्रिड (चौखाने) का प्रयोग कर बनाई गई है।
लाल किले की योजना पूर्ण रूप से की गई थी और इसके बाद के बदलावों ने भी इसकी योजना के मूलरूप में कोई बदलाव नहीं होने दिया है। 18वीं सदी में कुछ लुटेरों एवं आक्रमणकारियों द्वारा इसके कई भागों को क्षति पहुँचाई गई थी। 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद, किले को ब्रिटिश सेना के मुख्यालय के रूप में प्रयोग किया जाने लगा था। इस सेना ने इसके करीब अस्सी प्रतिशत मण्डपों तथा उद्यानों को नष्ट कर दिया। .[2] इन नष्ट हुए बागों एवं बचे भागों को पुनर्स्थापित करने की योजना सन 1903 में उमैद दानिश द्वारा चलाई गई।
लाल किले में उच्चस्तर की कला एवं विभूषक कार्य दृश्य है। यहाँ की कलाकृतियाँ फारसी, यूरोपीय एवं भारतीय कला का संश्लेषण है, जिसका परिणाम विशिष्ट एवं अनुपम शाहजहानी शैली था। यह शैली रंग, अभिव्यंजना एवं रूप में उत्कृष्ट है। लालकिला दिल्ली की एक महत्वपूर्ण इमारत समूह है, जो भारतीय इतिहास एवं उसकी कलाओं को अपने में समेटे हुए है। इसका महत्व समय की सीमाओं से बढ़कर है। यह वास्तुकला सम्बंधी प्रतिभा एवं शक्ति का प्रतीक है। सन 1913में इसे राष्ट्रीय महत्व के स्मारक घोषित होने से पूर्वैसकी उत्तरकालीनता को संरक्षित एवं परिरक्षित करने हेतु प्रयास हुए थे।
इसकी दीवारें, काफी सुचिक्कनता से तराशी गईं हैं। ये दीवारें दो मुख्य द्वारों पर खुली हैं ― दिल्ली दरवाज़ा एवं लाहौर दरवाज़ा। लाहौर दरवाज़े इसका मुख्य प्रवेशद्वार है। इसके अन्दर एक लम्बा बाजार है, चट्टा चौक, जिसकी दीवारें दुकानों से कतारित हैं। इसके बाद एक बडा़ खुला स्थान है, जहाँ यह लम्बी उत्तर-दक्षिण सड़क को काटती है। यही सड़क पहले किले को सैनिक एवं नागरिक महलों के भागों में बांटती थी। इस सड़क का दक्षिणी छोर दिल्ली गेट पर है।
दीवान-ए-आम[संपादित करें]
इस गेट के पार एक और खुला मैदान है, जो कि मुलतः दीवाने-ए-आम का प्रांगण हुआ करता था। दीवान-ए-आम। यह जनसाधारण हेतु बना वृहत प्रांगण था। एक अलंकृत सिंहासन का छज्जा दीवान की पूर्वी दीवार के बीचों बीच बना था। यह बादशाह के लिये बना था और सुलेमान के राज सिंहासन की नकल ही था।
नहर-ए-बहिश्त[संपादित करें]
राजगद्दी के पीछे की ओर शाही निजी कक्ष स्थापित हैं। इस क्षेत्र में, पूर्वी छोर पर ऊँचे चबूतरों पर बने गुम्बददार इमारतों की कतार है, जिनसे यमुना नदी का किनारा दिखाई पड़ता है। ये मण्डप एक छोटी नहर से जुडे़ हैं, जिसे नहर-ए-बहिश्त कहते हैं, जो सभी कक्षों के मध्य से जाती है। किले के पूर्वोत्तर छोर पर बने शाह बुर्ज पर यमुना से पानी चढा़या जाता है, जहाँ से इस नहर को जल आपूर्ति होती है। इस किले का परिरूप कुरान में वर्णित स्वर्ग या जन्नत के अनुसार बना है। यहाँ लिखी एक आयत कहती है,
यदि पृथ्वी पर कहीं जन्नत है, तो वो यहीं है, यहीं है, यहीं है।
महल की योजना मूलरूप से इस्लामी रूप में है, परंतु प्रत्येक मण्डप अपने वास्तु घटकों में हिन्दू वास्तुकला को प्रकट करता है। लालकिले का प्रासाद, शाहजहानी शैली का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत करता है।
ज़नाना[संपादित करें]
महल के दो दक्षिणवर्ती प्रासाद महिलाओं हेतु बने हैं, जिन्हें जनाना कहते हैं: मुमताज महल, जो अब संग्रहालय बना हुआ है, एवं रंग महल, जिसमें सुवर्ण मण्डित नक्काशीकृत छतें एवं संगमर्मर सरोवर बने हैं, जिसमें नहर-ए-बहिश्त से जल आता है।
खास महल[संपादित करें]
दक्षिण से तीसरा मण्डप है खास महल। इसमें शाही कक्ष बने हैं। इनमें राजसी शयन-कक्ष, प्रार्थना-कक्ष, एक बरामदा और मुसम्मन बुर्ज बने हैं। इस बुर्ज से बादशाह जनता को दर्शन देते थे।
दीवान-ए-ख़ास[संपादित करें]
दीवान-ए-खास, राजसी निजी सभा कक्ष
अगला मण्डप है दीवान-ए-खास, जो राजा का मुक्तहस्त से सुसज्जित निजी सभा कक्ष था। यह सचिवीय एवं मंत्रीमण्डल तथा सभासदों से बैठकों के काम आता थाइस म्ण्डप में पीट्रा ड्यूरा से पुष्पीय आकृति से मण्डित स्तंभ बने हैं। इनमें सुवर्ण पर्त भी मढी है, तथा बहुमूल्य रत्न जडे़ हैं। इसकी मूल छत को रोगन की गई काष्ठ निर्मित छत से बदल दिया गया है। इसमें अब रजत पर सुवर्ण मण्डन किया गया है।
अगला मण्डप है, हमाम, जो को राजसी स्नानागार था, एवं तुर्की शैली में बना है। इसमें संगमर्मर में मुगल अलंकरण एवं रंगीन पाषाण भी जडे़ हैं।
मोती मस्जिद[संपादित करें]
हमाम के पश्चिम में मोती मस्जिद बनी है। यह सन् 1659 में, बाद में बनाई गई थी, जो औरंगजे़ब की निजी मस्जिद थी। यह एक छोटी तीन गुम्बद वाली, तराशे हुए श्वेत संगमर्मर से निर्मित है। इसका मुख्य फलक तीन मेहराबों से युक्त है, एवं आंगन में उतरता है।जहा फुलो का मेला है
हयात बख़्श बाग[संपादित करें]
इसके उत्तर में एक वृहत औपचारिक उद्यान है जिसे हयात बख्श बाग कहते हैं। इसका अर्थ है जीवन दायी उद्यान। यह दो कुल्याओं द्वारा द्विभाजित है। एक मण्डप उत्तर दक्षिण कुल्या के दोनों छोरों पर स्थित हैं एवं एक तीसरा बाद में अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर द्वारा 1842 बनवाया गया था। यह दोनों कुल्याओं के मिलन स्थल के केन्द्र में बना है।
आधुनिक युग में महत्व[संपादित करें]
रात के विद्युत प्रकाश में जगमगाता लाल किला
लाल किला दिल्ली शहर का सर्वाधिक प्रख्यात पर्यटन स्थल है, जो लाखॉ पर्यटकों को प्रतिवर्ष आकर्षित करता है। यह किला वह स्थल भी है, जहाँ से भारत के प्रधान मंत्री स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को देश की जनता को सम्बोधित करते हैं। यह दिल्ली का सबसे बडा़ स्मारक भी है।
एक समय था, जब 3000 लोग इस इमारत समूह में रहा करते थे। परंतु 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद]], किले पर ब्रिटिश सेना का कब्जा़ हो गया, एवं कई रिहायशी महल नष्ट कर दिये गये। इसे ब्रिटिश सेना का मुख्यालय भी बनाया गया। इसी संग्राम के एकदम बाद बहादुर शाह जफर पर यहीं मुकदमा भी चला था। यहीं पर नवंबर 1945 में इण्डियन नेशनल आर्मी के तीन अफसरों का कोर्ट मार्शल किया गया था। यह स्वतंत्रता के बाद 1947 में हुआ था। इसके बाद भारतीय सेना ने इस किले का नियंत्रण ले लिया था। बाद में दिसम्बर 2003 में, भारतीय सेना ने इसे भारतीय पर्यटन प्राधिकारियों को सौंप दिया।
इस किले पर दिसम्बर 2000 में लश्कर-ए-तोएबा के आतंकवादियों द्वारा हमला भी हुआ था। इसमें दो सैनिक एवं एक नागरिक मृत्यु को प्राप्त हुए। इसे मीडिया द्वारा काश्मीर में भारत - पाकिस्तान शांति प्रक्रिया को बाधित करने का प्रयास बताया गया था।
किला पर्यटन विभाग के अधिकार में[संपादित करें]
1947 में भारत के आजाद होने पर ब्रिटिश सरकार ने यह परिसर भारतीय सेना के हवाले कर दिया था, तब से यहां सेना का कार्यालय बना हुआ था। २२ दिसम्बर २००३ को भारतीय सेना ने ५६ साल पुराने अपने कार्यालय को हटाकर लाल किला खाली किया और एक समारोह में पर्यटन विभाग को सौंप दिया। इस समारोह में रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने कहा कि कि सशस्त्र सेनाओं का इतिहास लाल किले से जुड़ा हुआ है, पर अब हमारे इतिहास और विरासत के एक पहलू को दुनिया को दिखाने का समय है]
मुगल शहंशाह शाहजहां ने 1638 में लाल किले के निर्माण के आदेश दिये थे। लगभग इसी समय उसने आगरा में अपनी स्वर्गीय पत्नी की याद में ताजमहल बनवाना शुरू किया था। लाल किले पर 1739 में फारस के बादशाह नादिर शाह ने हमला किया था और वह अपने साथ यहां से स्वर्ण मयूर सिंहासन ले गया था, जो बाद में ईरानी शहंशाहों का प्रतीक बना।
रक्तदुर्गम्
रक्तदुर्गम्
विश्वपरम्परास्थानानि
रक्तदुर्गम् is a prominent fort in Delhi
राष्ट्रम् India
प्रकारः Cultural
मानदण्डः ii, iii, vi
अनुबन्धाः 231
क्षेत्रम् Asia-Pacific
शिलाभिलेखस्य इतिहासः
शिलाभिलेखाः 2007 (31st सत्रम्)
* विश्वपरम्परावल्याम् अङ्कितानि नामानि ।
^ यूनेस्को द्वारा वर्गीकृतक्षेत्रम्
अस्माकं देशस्य प्रसिद्धासु भवनरचनासु देहलीस्थं रक्तदुर्गम् अस्ति प्रमुखम् । एतत् मोगलनां वैभवस्य द्योतकम् अस्ति । शाहजहानः एतस्य निर्माणं करितवान् । १६३९ तमे वर्षे एतस्य निर्माणकार्यम् आरब्धम् । नवानां वर्षणाम् अनन्तरं, तन्नाम् १६४८ तमे वर्षे, शाहजहानः महता वैभवेन एतत् दुर्गं प्रविष्टवान् वासाय ।
रक्तदुर्गं देहलीराज्ये आग्रानगरस्य समीपे अस्ति । 'प्रसिद्धताजमहल्’तः सार्ध द्वे कि.मि दूरे अस्ति । रक्तदुर्गम् (लालखिला) वास्तविकतया दुर्गैः आवृतम् प्रासादनगरम् इति आह्वातुं शक्यते ।
इतिहासं[सम्पादयतु]
षोडषतमे शतमानस्य अन्ते अक्बरस्य काले मोघलवंशीयाः एतत् दुर्गम् लूदीवंशात् अलभन् । अक्बरः स्वराज्यपरिपालनसमये राजधानीं देहलीतः आग्रां प्रति परिवर्तितवान् । अनेन आग्रा नगरम् अधिकसंपन्नं संजातम् । अक्बरः सामान्यतः दुर्ग-सौधादिकं रक्तवर्णाश्मभिः निर्माययति स्म, च रक्तदुर्गेऽपि अस्य प्रभावं दृष्टुं शक्यते । रक्तदुर्गम् न केवलम् दुर्गत्वेन अपितु राज्ञाम् एवं तेषां दाराणाम् निवासत्वेनापि उपयोगः आरब्धः । रक्तदुर्गस्य इदानींतनरुपम् अक्बरस्य प्रपौत्रः षाअजानस्य काले प्राप्तम् । षाजहानस्य काले शिल्पकलायाम् श्वेतामृतशिलाम् अधिकतया उपयुज्यन्ते स्म (उदाहरणार्थम् - ताजमहल्) । षाहाजानः अत्रत्य केषाञ्चनसौधान् नाशयित्वा स्वकीयसौधाः निर्मितवान् । अनन्तरवर्षेषु षाजहानस्य पुत्रः औरङ्गजेबः षाहजहानम् अस्मिन्नेव रक्कदुर्गे बन्धितवान् अपि । षाजहानः अस्मिन्नेव रक्तदुर्गे 'मुसम्मुन् बुर्ज' नामके गोपुरे इति मृतवान् इति भावयन्ति । एषः अमृतशिलायाम् निर्मितः । (ताजमहल्) ताजसौधानस्य अद्भुतम् दृश्यम् अस्मात् सौधात् सम्यक् दृश्यते ।
नख्खर् खन्न
रक्तदुर्गस्य चित्रणम्[सम्पादयतु]
रक्तदुर्गस्य प्रवेशद्वारद्वयम् अस्ति । पश्चिमीयेन मार्गेण जनाः प्रविशन्ति । लाहोरद्वारम् इति एतस्य नाम । राजभवनस्य मुखद्वारे भेरीगृहम् अस्ति । एतत् शिलया सिकताभिः च निर्मितं भवनम् । एतस्य अभिमुखम् एकत्र 'हरिततृणाङ्गणम् (लान् )अस्ति, अपरत्र आस्थानभवनम् अस्ति ।
आस्थानभवनस्य पूर्वभागे सिंहासनं भवति स्म पूर्वम् । आस्थानभवनस्य पृष्ठभागे रङ्गमन्दिरस्य मध्ये सङ्गमरमरशिलया निर्मितः कुण्डः भवति । एत्स्य अधोभागाः पद्माकारेण रमणीयतया निर्मितः अस्ति । रङ्गमन्दिरस्य पार्श्वे ममताज्मद्निरम् अस्ति । एतत् काचकमन्दिरम् इत्यपि निर्दिश्यते । रङ्गमन्दिरस्य उत्तरस्यां दिशि 'महिलाखास्’ भवनम् स्ति । एअत्स्य भ्वनस्य पार्श्वे एव किञ्चन गोलभवनम् अस्ति । इतः उत्तरस्यां दिशि गतं चेत् आन्तरङ्गिकभवनं प्राप्यते । गजत्प्रसिद्धं मयूरसिंहसनम अत्रैव भवति स्म ।
दिवान्-ऐ-आम् अन्तश्चित्रम्
आन्तरङ्गिकभवनस्य उत्तरभागो राजपरिवारीयाणां स्नानगॄहाणि द्दश्यन्ते । स्नानगृहाणां पार्श्वे एव् 'मोतीमसजिद्’ अस्ति । औरङ्गजेबः एतत् सङ्गमामरशिलया निर्मापितवान् । एतस्य अन्यस्मिन् पार्श्वे उद्यानं, सरोवरः च द्दश्येते । तौ उभयतः सङ्गमरमरमण्डपे द्दश्येते । तौ उभयतः सङ्गमरमरमण्डपे द्दश्येते । उद्यानस्य मध्ये एव द्वितीयेन बहादुरशाहेन गते शतके सिकताभिः शिलाभिः च् अ निर्मापितं भवनं द्दश्यते ।
Red Fort
Constructed in 1648 by the fifth Mughal Emperor Shah Jahan as the palace of his fortified capital Shahjahanabad,[2] the Red Fort is named for its massive enclosing walls of red sandstone and is adjacent to the older Salimgarh Fort, built by Islam Shah Suri in 1546. The imperial apartments consist of a row of pavilions, connected by a water channel known as the Stream of Paradise (Nahr-i-Bihisht). The fort complex is considered to represent the zenith of Mughal creativity under Shah Jahan and although the palace was planned according to Islamic prototypes, each pavilion contains architectural elements typical of Mughal buildings that reflect a fusion of Timurid and Persian traditions. The Red Fort’s innovative architectural style, including its garden design, influenced later buildings and gardens in Delhi, Rajasthan, Punjab, Kashmir, Braj, Rohilkhand and elsewhere.[1] With the Salimgarh Fort, it was designated a UNESCO World Heritage Site in 2007 as part of the Red Fort Complex.[1][3]
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