Thursday, March 29, 2018

प्रमुख भारतीय लेखक एवं उनकी पुस्तके

प्रमुख भारतीय लेखक एवं उनकी पुस्तके ः
◆पंचतंत्र ~ विष्णु शर्मा
●प्रेमवाटिका ~ रसखान
●मृच्छकटिकम् ~ शूद्रक
●कामसूत्र् ~ वात्स्यायन
●दायभाग ~ जीमूतवाहन
●नेचुरल हिस्द्री ~ प्लिनी
●दशकुमारचरितम् ~ दण्डी
●अवंती सुन्दरी ~ दण्डी
●बुध्दचरितम् ~ अश्वघोष
●कादम्बरी् ~ बाणभटृ
●अमरकोष ~ अमर सिहं
●शाहनामा ~ फिरदौसी
●साहित्यलहरी ~ सुरदास
●सूरसागर ~ सुरदास
●हुमायूँनामा ~ गुलबदन बेगम
●नीति शतक ~ भर्तृहरि
●श्रृंगारशतक ~ भर्तृहरि
●वैरण्यशतक ~ भर्तृहरि
●हिन्दुइज्म ~ नीरद चन्द्र चौधरी
●पैसेज टू इंगलैंड ~ नीरद चन्द्र चौधरी
●अॉटोबायोग्राफी अॉफ ऐन अननोन इण्डियन ~ नीरद
चन्द्र चौधरी
●कल्चर इन द वैनिटी वैग ~ नीरद चन्द्र चौधरी
●मुद्राराक्षस ~ विशाखदत्त
●अष्टाध्यायी ~ पाणिनी
●भगवत् गीता ~ वेदव्यास
●महाभारत ~ वेदव्यास
●मिताक्षरा ~ विज्ञानेश्वर
●राजतरंगिणी ~ कल्हण
●अर्थशास्त्र ~ चाणक्य
●कुमारसंभवम् ~ कालिदास
●रघुवंशम् ~ कालिदास
●अभिज्ञान शाकुन्तलम् ~ कालिदास
●गीतगोविन्द ~ जयदेव
●मालतीमाधव ~ भवभूति
●उत्तररामचरित ~ भवभूति
●पद्मावत् ~ मलिक मो. जायसी
●आईने अकबरी ~अबुल फजल
●अकबरनामा ~अबुल फजल
●बीजक ~ कबीरदास
●रमैनी ~ कबीरदास
●सबद ~ कबीरदास
●किताबुल हिन्द ~ अलबरूनी
●कुली ~ मुल्कराज आनन्द
●कानफैंशंस अॉफ ए लव ~मुल्कराज आनन्द
●द डेथ अॉफ ए हीरो~मुल्कराज आनन्द
●जजमेंट ~ कुलदीप नैयर
●डिस्टेंन्ट नेवर्स~ कुलदीप नैयर
●इण्डिया द क्रिटिकल इयर्स~ कुलदीप नैयर
●इन जेल ~ कुलदीप नैयर
●इण्डिया आफ्टर नेहरू ~कुलदीप नैयर
●बिटवीन द लाइन्स ~कुलदीप नैयर
●चित्रांगदा ~रविन्द्र नाथ टैगौर
●गीतांजली~रविन्द्र नाथ टैगौर
●विसर्जन ~रविन्द्र नाथ टैगौर
●गार्डनर ~रविन्द्र नाथ टैगौर
●हंग्री स्टोन्स ~रविन्द्र नाथ टैगौर
●गोरा ~ रविन्द्र नाथ टैगौर
●चाण्डालिका~ रविन्द्र नाथ टैगौर
●भारत-भारती ~ मैथलीशरण गुप्त
●डेथ अॉफ ए सिटी~ अमृता प्रीतम
●कागज ते कैनवास~ अमृता प्रीतम
●फोर्टी नाइन डेज~ अमृता प्रीतम
●इन्दिरा गाँधी रिटर्नस ~खुशवंत सिहं
●दिल्ली ~खुशवंत सिहं
●द कम्पनी अॉफ वीमैन ~ खुशवंत सिहं
●सखाराम बाइण्डर ~ विजय तेंदुलकर
●इंडियन फिलॉस्पी ~डॉ. एस. राधाकृष्णन
●इंटरनल इंडिया ~इंदिरा गाँधी
●कामयानी ~जयशंकर प्रसाद
●आँसू ~ जयशंकर प्रसाद
●लहर ~ जयशंकर प्रसाद
●लाइफ डिवाइन ~अरविन्द घोष
●ऐशेज अॉन गीता ~अरविन्द घोष
●अनामिका ~सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
●परिमल ~सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
●यामा ~ महादेवी वर्मा
●ए वाइस अॉफ फ्रिडम ~नयन तारा सहगल
●एरिया अॉफ डार्कनेस ~वी. एस. नायपॉल
●अग्निवीणा ~ काजी नजरुल इस्लाम
●डिवाइन लाइफ ~ शिवानंद
●गोदान ~ प्रेमचन्द्र
●गबन ~ प्रेमचन्द्र
●कर्मभूमि ~ प्रेमचन्द्र
●रंगभूमि ~ प्रेमचन्द्र
●अनटोल्ड स्टोरी ~बी. एम. कौल
●कन्फ्रन्डेशन विद पाकिस्तान ~बी. एम. कौल
●कितनी नावों में कितनी बार ~अज्ञेय
●गोल्डेन थेर्सहोल्ड ~सरोजिनी नायडू
●ब्रोकेन विंग्स ~सरोजिनी नायडू
●दादा कामरेड ~ यशपाल
●पल्लव ~ सुमित्रानन्दन पंत्त
●चिदम्बरा~ सुमित्रानन्दन पंत्त
●कुरूक्षेत्र ~रामधारी सिहं 'दिनकर'
●उर्वशी ~रामधारी सिहं 'दिनकर'
●द डार्क रूम ~आर. के. नारायण
●मालगुड़ी डेज ~आर. के. नारायण
●गाइड ~आर. के. नारायण
●माइ डेज ~आर. के. नारायण
●नेचर क्योर ~ मोरारजी देसाई
●चन्द्रकान्ता ~देवकीनन्दन खत्री
●देवदास ~शरतचन्द्र चटोपाध्याय
●चरित्रहीन ~शरतचन्द्र चटोपाध्याय..

भज गोविन्दम् गोविन्दं भज मूढ़मते

भज गोविन्दम् गोविन्दं भज मूढ़मते
======================

भज गोविन्दं भज गोविन्दं,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥

हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है ॥१॥

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्,
कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्,
वित्तं तेन विनोदय चित्तं ॥२॥

हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो ॥२॥

नारीस्तनभरनाभीदेशम्,
दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्,
मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥३॥

स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं ॥३॥

नलिनीदलगतजलमतितरलम्,
तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं,
लोक शोकहतं च समस्तम् ॥४॥

जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है ॥४॥

यावद्वित्तोपार्जनसक्त:,
तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे,
वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥५॥

जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है ॥५॥

यावत्पवनो निवसति देहे,
तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये,
भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥६॥

जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है ॥६॥

बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥

बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥

का ते कांता कस्ते पुत्रः,
संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत अयातः,
तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥८॥

कौन तुम्हारी पत्नी है, कौन तुम्हारा पुत्र है, ये संसार अत्यंत विचित्र है, तुम कौन हो, कहाँ से आये हो, बन्धु ! इस बात पर तो पहले विचार कर लो ॥८॥

सत्संगत्वे निस्संगत्वं,
निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं
निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥९॥

सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥९॥

वयसि गते कः कामविकारः,
शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः,
ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥१०॥

आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ॥१०॥

मा कुरु धनजनयौवनगर्वं,
हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा,
ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा ॥११॥ 

धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो ॥११॥

दिनयामिन्यौ सायं प्रातः,
शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि
न मुन्च्त्याशावायुः ॥१२॥ 

दिन और रात, शाम और सुबह, सर्दी और बसंत बार-बार आते-जाते रहते है काल की इस क्रीडा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है पर इच्छाओ का अंत कभी नहीं होता है ॥१२॥

द्वादशमंजरिकाभिरशेषः
कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः, श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः ॥१२॥

बारह गीतों का ये पुष्पहार, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण को प्रदान किया गया ॥१२॥

काते कान्ता धन गतचिन्ता,
वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका,
भवति भवार्णवतरणे नौका ॥१३॥

तुम्हें पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है, क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है| तीनों लोकों में केवल सज्जनों का साथ ही इस भवसागर से पार जाने की नौका है ॥१३॥

जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः,
काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः,
उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ॥१४॥

बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरे बाल , काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति भांति के वेश ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो ॥१४॥

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं,
दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं,
तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥१५॥

क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दांतों से रहित मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश से बंधा रहता है ॥१५॥

अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः,
रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः,
तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥१६॥

सूर्यास्त के बाद, रात्रि में आग जला कर और घुटनों में सर छिपाकर सर्दी बचाने वाला, हाथ में भिक्षा का अन्न खाने वाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को छोड़ नहीं पाता है ॥१६॥

भगवद् गीता किञ्चिदधीता,
गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा,
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ॥२०॥

जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है ॥२०॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे,
कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ॥२१॥

बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके मेरी इससे रक्षा करें ॥२१॥

रथ्या चर्पट विरचित कन्थः,
पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः।
योगी योगनियोजित चित्तो,
रमते बालोन्मत्तवदेव ॥२२॥

रथ के नीचे आने से फटे हुए कपडे पहनने वाले, पुण्य और पाप से रहित पथ पर चलने वाले, योग में अपने चित्त को लगाने वाले योगी, बालक के समान आनंद में रहते हैं ॥२२॥

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः,
का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारम्,
विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ॥२३॥

तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी माँ कौन है, मेरा पिता कौन है? सब प्रकार से इस विश्व को असार समझ कर इसको एक स्वप्न के समान त्याग दो ॥२३॥

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः,
व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं,
वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥२४॥

तुममें, मुझमें और अन्यत्र भी सर्वव्यापक विष्णु ही हैं, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो, यदि तुम शाश्वत विष्णु पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ ॥२४॥

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ,
मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं,
सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥२५॥

शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो, सबमें अपने आप को ही देखो, इस प्रकार सर्वत्र ही भेद रूपी अज्ञान को त्याग दो ॥२५॥

कामं क्रोधं लोभं मोहं,
त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः,
ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥२६॥

काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वो बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं ॥२६॥

गेयं गीता नाम सहस्रं,
ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं,
देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥२७॥

भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो, सज्जनों के संग में अपने मन को लगाओ और गरीबों की अपने धन से सेवा करो ॥२७॥

सुखतः क्रियते रामाभोगः,
पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं,
तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥२८॥

सुख के लिए लोग आनंद-भोग करते हैं जिसके बाद इस शरीर में रोग हो जाते हैं। यद्यपि इस पृथ्वी पर सबका मरण सुनिश्चित है फिर भी लोग पापमय आचरण को नहीं छोड़ते हैं ॥२८॥

अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं,
नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः,
सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥२९॥

धन अकल्याणकारी है और इससे जरा सा भी सुख नहीं मिल सकता है, ऐसा विचार प्रतिदिन करना चाहिए | धनवान व्यक्ति तो अपने पुत्रों से भी डरते हैं ऐसा सबको पता ही है ॥२९॥

प्राणायामं प्रत्याहारं,
नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं,
कुर्ववधानं महदवधानम् ॥३०॥

प्राणायाम, उचित आहार, नित्य इस संसार की अनित्यता का विवेक पूर्वक विचार करो, प्रेम से प्रभु-नाम का जाप करते हुए समाधि में ध्यान दो, बहुत ध्यान दो ॥३०॥

गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः,
संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं,
द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥३१॥

गुरु के चरण कमलों का ही आश्रय मानने वाले भक्त बनकर सदैव के लिए इस संसार में आवागमन से मुक्त हो जाओ, इस प्रकार मन एवं इन्द्रियों का निग्रह कर अपने हृदय में विराजमान प्रभु के दर्शन करो ॥३१॥

मूढः कश्चन वैयाकरणो,
डुकृञ्करणाध्ययन धुरिणः।
श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै,
बोधित आसिच्छोधितकरणः ॥३२॥

इस प्रकार व्याकरण के नियमों को कंठस्थ करते हुए किसी मोहित वैयाकरण के माध्यम से बुद्धिमान श्री भगवान शंकर के शिष्य बोध प्राप्त करने के लिए प्रेरित किये गए ॥३२॥

भजगोविन्दं भजगोविन्दं,
गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं,
नहि पश्यामो भवतरणे ॥३३॥

गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है ॥३३॥

संस्कृत_के_महान_कवि भारवि

संस्कृत_के_महान_कवि भारवि

भारवि (छठी शताब्दी) संस्कृत के महान कवि हैं। वे अर्थ की गौरवता के  लिये प्रसिद्ध हैं भारवेरर्थगौरवम्  किरातार्जुनीयम् महाकाव्य उनकी महान रचना है। इसे एक उत्कृष्ट श्रेणी की काव्यरचना माना जाता है। इनका काल छठी-सातवीं शताब्दी बताया जाता है। यह काव्य किरातरूपधारी शिव एवं पांडुपुत्र अर्जुन के बीच के धनुर्युद्ध तथा वाद-वार्तालाप पर केंद्रित है। महाभारत के एक पर्व पर आधारित इस महाकाव्य में अट्ठारह_सर्ग हैं। भारवि सम्भवतः दक्षिण भारत के कहीं जन्मे थे। उनका रचनाकाल पश्चिमी गंग राजवंश के #राजा_दुर्विनीत तथा पल्लव राजवंश के राजा सिंहविष्णु के शासनकाल के समय का है।

कवि ने बड़े से बड़े अर्थ को थोड़े से शब्दों में प्रकट कर अपनी काव्य-कुशलता का परिचय दिया है। कोमल भावों का प्रदर्शन भी कुशलतापूर्वक किया गया है। इसकी भाषा उदात्त एवं हृदय भावों को प्रकट करने वाली है। प्रकृति के दृश्यों का वर्णन भी अत्यन्त मनोहारी है। भारवि ने केवल एक अक्षर ‘न’ वाला श्लोक लिखकर अपनी काव्य चातुरी का परिचय दिया है।

किरातार्जुनीयम् महाकवि भारवि द्वारा सातवीं शती ई. में रचित महाकाव्य है जिसे संस्कृत साहित्य में महाकाव्यों की #वृहत्त्रयी में स्थान प्राप्त है। महाभारत में वर्णित किरातवेशी शिव के साथ अर्जुन के युद्ध की लघु कथा को आधार बनाकर कवि ने राजनीति, धर्मनीति, कूटनीति, समाजनीति, युद्धनीति, जनजीवन आदि का मनोरम वर्णन किया है। यह काव्य विभिन्न रसों से ओतप्रोत है किन्तु यह मुख्यतः वीर_रस_प्रधान रचना है।

संस्कृत के छ: प्रसिद्ध महाकाव्य हैं – #बृहत्त्रयी और #लघुत्रयी। किरातार्जनुयीयम्‌ (#भारवि), शिशुपालवधम्‌ (#माघ) और नैषधीयचरितम्‌ (#श्रीहर्ष)– बृहत्त्रयी कहलाते हैं। कुमारसम्भवम्‌, रघुवंशम् और मेघदूतम् (तीनों कालिदास द्वारा रचित) - लघुत्रयी कहलाते हैं

किरातार्जुनीयम्_की_कथा
राजनीति और व्यवहार-नीति में भारवि के विशेष रुझान के चलते यह युक्तियुक्त ही था कि वे किरातार्जुनीयम्‌ का कथानक महाभारत से उठाते। उन्होंने वनपर्व के पाँच अध्यायों से पांडवों के वनवास के समय अमोघ अस्त्र के लिए अर्जुन द्वारा की गई शिव की घोर तपस्या के फलस्वरूप पाशुपतास्त्र प्राप्त करने के छोटे-से प्रसंग को उठाकर उसे अठारह सर्गों के इस महाकाव्य का रूप दे दिया।

जब युधिष्ठिर कौरवों के साथ संपन्न द्यूतक्रीड़ा में सब कुछ हार गये तो उन्हें अपने भाइयों एवं द्रौपदी के साथ 13 वर्ष के वनवास पर जाना पड़ा। उनका अधिकांश समय द्वैतवन में बीता। वनवास के कष्टों से खिन्न होकर और कौरवों द्वारा की गयी साजिश को याद करके द्रौपदी युधिष्ठिर को अक्सर प्रेरित करती थीं कि वे युद्ध की तैयारी करें और युद्ध के माध्यम से कौरवों से अपना राजपाठ वापस लें। भीम भी द्रौपदी की बातों का पक्ष लेते हैं।

गुप्तचर के रूप में हस्तिनापुर भेजे गए एक वनेचर (वनवासी) से सूचना मिलती है कि दुर्योधन अपने सम्मिलित राज्य के सर्वांगीण विकास और सुदृढ़ीकरण में दत्तचित्त है, क्योंकि कपट-द्यूत से हस्तगत किए गए आधे राज्य के लिए उसे पांडवों से आशंका है। पांडवों को भी लगता है कि वनवास की अवधि समाप्त होने पर उनका आधा राज्य बिना युद्ध के वापस नहीं मिलेगा। द्रौपदी और भीम युधिष्ठिर को वनवास की अवधि समाप्त होने की प्रतीक्षा न कर दुर्योधन पर तुरंत आक्रमण के लिए उकसाते हैं, लेकिन आदर्शवादी, क्षमाशील युधिष्ठिर व्यवहार की मर्यादा लाँघने को तैयार नहीं।

उधर आ निकले व्यास सलाह देते हैं कि भविष्य के युद्ध के लिए पांडवों को अभी से शक्ति-संवर्धन करना चाहिए। उन्हीं के द्वारा बताए गए उपाय के अनुसार अर्जुन शस्त्रास्त्र के लिए इन्द्र (अपने औरस पिता) को तप से प्रसन्न करने के लिए एक यक्ष के मार्गदर्शन में हिमालय-स्थित इन्द्रकील_पर्वत की ओर चल पड़ते हैं। वहां एक आश्रम बनाकर की गई तपस्या के फलस्वरूप अप्सराओं आदि को भेजकर परीक्षा लेने के बाद इंद्र एक वृद्ध मुनि के वेष में उपस्थित होते हैं और तपस्या के नाशवान लौकिक लक्ष्य को निःसार बताते हुए परमार्थ की महत्ता का निदर्शन करते हैं। अर्जुन इसकी काट में कौरवों द्वारा किए गए छल एवं अन्याय का लेखा-जोखा प्रस्तुतकर शत्रु से प्रतिशोध लेने की अनिवार्यता, सामाजिक कर्तव्य-पालन तथा अन्याय के प्रतिकार का तर्क देकर इंद्र को संतुष्ट कर देते हैं। फलस्वरूप इंद्र अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर अर्जुन को मनोरथ-पूर्ति के लिए शिव की तपस्या करने की सलाह देते हैं।

अर्जुन फिर से घोर, निराहार तपस्या में लीन हो जाते हैं। अर्जुन इंद्रकील के लिए एक अजनबी तपस्वी है, जटा, वल्कल और मृगचर्म तो उसके पास हैं लेकिन साथ ही शरीर में कवच भी है, यज्ञोपवीत की जगह प्रत्यंचा-समेत गांडीव धनुष है, दो विशाल तरकस हैं और एक उत्तम खड्ग भी। उसे मुनिधर्म-विरोधी समझकर वहाँ के अन्य तपस्वी आतंकित हैं और शंकर के पास निवेदन के लिये पहुँच जाते हैं।उसके क्रम में शिव जी किरातों की स्थानीय जनजाति के सेनापति का वेश धारणकर किरातवेशधारी अपने गणों की सेना लेकर अर्जुन के पास पहुँच जाते हैं। तभी 'मूक' नाम का एक दानव अर्जुन की तपस्या को देवताओं का कार्य समझकर, विशाल शूकर का शरीर धारणकर, उसको मारने के लिए झपटता है। शिव और अर्जुन दोनों द्वारा एक साथ चलाए गए एक-जैसे बाण से उस सूअर की इहलीला समाप्त हो जाती है। शिव का बाण तो उसके शरीर को बेधता हुआ धरती में धँस जाता है और अर्जुन जब अपना बाण उसके शरीर से निकालने जाते हैं तो शिव अपने एक गण को भेजकर विवाद खड़ा करा देते हैं। परिणामतः दोनों के बीच युद्ध आरम्भ हो जाता है। अर्जुन गणों की सेना को तो बाण-वर्षा से भागने को मजबूर कर देते हैं पर शिव के साथ हुए युद्ध में परास्त हो जाते हैं। पराजय से हताश अर्जुन किरात-सेनापति के वेश में शिव को पहचानकर समर्पण कर देते हैं, जिससे प्रसन्न होकर शिव प्रकट होते हैं और पाशुपतास्त्र प्रदानकर उसका प्रशिक्षण देते हैं। इस तरह अर्जुन का मंतव्य पूरा होने के साथ महाकाव्य-विधा के भी सारे मंतव्य सिद्ध हो जाते हैं।

संरचना
कीरातार्जुनीयम् में १८ सर्ग हैं।

किरातार्जुनीयम्‌ के पहले सर्ग में द्रौपदी और दूसरे में भीम द्वारा युधिष्ठिर को दुर्योधन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के लिए उकसाने और युधिष्ठिर द्वारा उसे अनीतिपूर्ण बताकर अस्वीकार कर देने के क्रम में भारवि ने राजनीति के दो छोरों के बीच के द्वंद्व पर बहुत सार्थक विमर्श प्रस्तुत किया है। तीसरे सर्ग में व्यास कौरव पक्ष के भीष्म, द्रोण, कर्ण-जैसे धुरंधरों को पांडवों द्वारा अजेय बताते हुए 13 साल की अवधि में हर तरह से शक्ति-संवर्धन करने और भविष्य के अवश्यम्भावी युद्ध की तैयारी के लिए उसका उपयोग करने की सलाह देते हैं। इसके लिये वे अर्जुन को उच्च कोटि के शस्त्रास्त्र हेतु तपस्या से इंद्र को प्रसन्न करने के लिए प्रेरित करते हैं और अपने साथ लाए एक यक्ष को भी छोड़ जाते हैं जो अर्जुन को इंद्र की तपस्या के लिए उपयुक्त स्थान तक ले जाएगा। चौथे सर्ग में #यक्ष_के_मार्गदर्शन में अर्जुन की द्वैतवन से हिमालय तक की यात्रा का सजीव एवं रोचक वर्णन है, जिसमें शरद ऋतु की थिर और संयत प्रकृति और उसके साथ घुले-मिले जन-जीवन का उल्लास नाना रूपों में तरंगित है। पाँचवाँ सर्ग यक्ष के साथ अर्जुन के यात्रा-प्रसंग से गिरिराज हिमालय के पर्वतीय प्रदेश के विशद, अलंकारिक वर्णन की छटा से दीप्त है।

छठे सर्ग का वर्ण्य विषय है : अर्जुन की आँखों से देखी इंद्रकील की अप्रतिम शोभा, वहाँ पहुंचकर अर्जुन द्वारा तप का प्रारम्भ, प्रकृति के विभिन्न उपादानों का तप में सहयोग, वहाँ तैनात वनदेवों द्वारा अमरावती पहुँचकर इन्द्र को सूचित करना, इंद्र द्वारा देवांगनाओं को उनके सहचर गंधर्वों के साथ वहाँ जाकर अपने हाव-भाव और सौन्दर्य से अर्जुन की तपस्या में विघ्न डालने का आदेश देना, ताकि उनकी निष्ठा की परीक्षा हो सके। सातवें सर्ग में अप्सराएँ तथा उनके सहचर गन्धर्व पूरे उल्लास-विलास के साथ आकाश मार्ग से विशेष प्रकार के हाथियों और रथों पर सवार देव गंगा के किनारे-किनारे अमरावती से इंद्रकील तक की यात्रा करते हैं। इंद्रकील के पास नीचे उतरकर वे पृथ्वी-गंगा के रम्य तट पर अपनी माया से गंधर्व-नगरी जैसा दिव्य शिविर बना लेते हैं। आठवाँ सर्ग में अप्सराएँ अपने शिविरों से वन-विहार के लिए निकलती हैं। यहाँ से शृंगार रस का रंग चढ़ना शुरू होता है, जो इसी सर्ग में वर्णित जल-क्रीड़ा में गाढ़ा होता है और नवें सर्ग में मद्य-पान के साथ सम्पन्न काम-केलि में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। दसवाँ सर्ग अप्सराओं द्वारा अर्जुन का ध्यान खींचकर उसे तपस्या से च्युत करने के अभियान और उसकी असफलता का है।

ग्यारहवें सर्ग में वयोवृद्ध मुनि के वेष में इन्द्र के आगमन और उनके द्वारा तपस्या के सांसारिक लक्ष्य की निस्सारता का निदर्शन है जिसके प्रत्युत्तर में अर्जुन लौकिक जीवन के मूल्यों, प्राथमिकताओं का अपना आख्यान रचते हैं। इस सर्ग के अंत में अर्जुन के तर्क से संतुष्ट देवराज अपने स्वरूप में प्रकट होकर उसके लक्ष्य के अनुरूप शिव की आराधना का उपदेश देते हैं। बारहवें सर्ग में अर्जुन घोर तपस्या आरम्भ कर देते हैं जिससे घबराकर अन्य संन्यासी शंकर के पास जा पहुंचते हैं। शंकर किरात का वेश धरकर अर्जुन से मिलते हैं। तेरहवें सर्ग में अर्जुन और किरात रूपधारी शिव दोनों सूकर रूपधारी (मूक दानव) पर तीर से आक्रमण करते हैं।

किरातार्जुनीयम्‌ के अंतिम पाँच सर्ग (१४ से १८) अपनी गण-सेना के साथ किरातवेशधारी शिव और अर्जुन के बीच युद्ध को समर्पित हैं। १५वें सर्ग में , जिसमें युद्ध का यह चरण आता है, भारवि ने चित्रकाव्य (अलंकारिक छंद) का प्रयोगकर महाकाव्य के दायरे के भीतर एक नई परम्परा का सूत्रपात किया है।

#किरातार्जुनीयम्_की_कुछ_सुक्तियाँ

#न_हि_प्रियम्_प्रवक्तुमिच्छन्ति_म्रिषा_हितैषि
#हितम्_मनोहारि_च_दुर्लभम्_वचः
#सहसा_विदधीत_न_क्रियामविवेकः_परमापदाम्_पदम्
#सताम्_हि_वाणी_गुणमेव_भाषते

कालिदास के पश्चात् संस्कृत कवियों में #भारवि का ऊँचा स्थान है, जो लगभग कालिदास के ही समकालीन थे। उनमें कालिदास की शैली तथा प्रतिभा की कुछ छाप भी दिखाई देती है। भारवि की कीर्ति का आधार-स्तम्भ उनकी एकमात्र रचना ‘किरातार्जुनीयम्’ महाकाव्य है, जिसकी कथावस्तु महाभारत से ली गई है। इसमें अर्जुन तथा 'किरात' वेशधारी शिव के बीच युद्ध का वर्णन है। अन्ततोगत्वा शिव प्रसन्न होकर अर्जुन को 'पाशुपतास्त्र' प्रदान करते हैं।